Friday, September 26, 2014

प्रथम अध्यायः

ॐ खङ्गं चक्रगदेषुचाप परिधांछूलं भुशुण्डीं शिरः 
शङ्खं संदधतीम्  करैस्त्रिनयनाम् सर्वांगभूषावृताम् 
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकाम् 
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुम कैटभम् 

ॐ खङ्गं चक्रगदेषुचाप = खङ्गं, चक्र, गदा , धनुष 

परिधांछूलं भुशुण्डीं शिरः = परिध , शूल , मस्तक 
शङ्खं संदधतीम्  करै: = शंख हाथों में धारण करती है 
त्रिनयनाम् सर्वांगभूषावृताम् = तीन नयनों वाली , सभी अंगों में आभूषण धारण किये 
नीलाश्म द्युतिम्= नीलमणि के सामान आभा वाली 
आस्य  पाद दशकां = जिसके दस पैर हैं 
सेवे= स्तवन 
 महाकालिकाम् = महाकाली का
याम:= जिस प्रकार 
तौ = उन 
 स्वपिते = सोने पर 
 हरौ = विष्णु के  
कमलजो= कमल जन्मा ब्रह्मा ने 
 हन्तुं मधुम कैटभम् = मधु कैटभ को मारने के लिए 


 खङ्गं चक्र, गदा, धनुष,परिध, शूल, मस्तक , शंख हाथों में धारण करती है, तीन नयनों वाली , सभी अंगों में आभूषण धारण किये , नीलमणि के सामान आभा वाली महाकाली  का उसी प्रकार स्तवन करता हूँ  जिस प्रकार कमल जन्मा ब्रह्मा ने विष्णु के सो जाने पर उन मधु कैटभ को मारने के लिए  महाकाली का स्तवन किया था ।  

मार्कण्डेय उवाच ।। १ ।।  


मार्कण्डेय = मार्कण्डेय

उवाच = बोले

मार्कण्डेय  बोले ।


सावर्णि: सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेsष्टम: । 

निशामय तदुत्पत्तिम् विस्तराद् गदतो मम ॥ २ ॥ 

सावर्णि:= सावर्णि

 सूर्य तनयो = सूर्य के पुत्र
यो =जो
मनुः = मनु

कथ्यते= कहलाये

अष्टमः= आठवें
निशामय= सुनो
तद उत्पत्तिम्= उनकी उत्पत्ति को
विस्तराद्= विस्तार से , विस्तारपूर्वक
गदतो= कहता हूँ
मम= मेरे द्वारा

सूर्य के पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं उनकी उत्पत्ति को विस्तारपूर्वक मुझसे सुनो ।




महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः 
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः ॥ ३॥ 

महामायानुभावेन = महामाया + अनुभवेन
महामाया = महामाया की 
अनुभवेन= कृपा से 
यथा = जिस प्रकार 
मन्वन्तराधिपः मन्वन्तर +अधिपः 
मन्वन्तर= मन्वन्तर के 
अधिपः = राजा 
स= वह 
बभूव = बना , हुआ 
महाभागः = भाग्यशाली 
सावर्णिस्तनयो= सावर्णिः + तनयो 
सावर्णिः = सावर्णि 
तनयो = पुत्र 
रवेः = सूर्य का 


वह सूर्य के पुत्र महाभाग सावर्णि महामाया की कृपा से जिस प्रकार मन्वन्तर के राजा हुए (वही सुनाता हूँ ) । 

स्वारोचिषेन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः 
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले  ॥ ४ ॥ 

स्वारोचिषेन्तरे स्वारोचिष मन्वन्तर में 
 पूर्वं = पूर्व काल में 
 चैत्रवंशसमुद्भवः चैत्रवंश + समुद्भवः  
चैत्रवंश + समुद्भवः  = चैत्र वंश में उत्पन्न 
सुरथो = सुरथ
 नाम = नाम के  
 राजाभूत्समस्ते =  राजा + अभूत + समस्ते
 राजा = राजा 
 अभूत = थे 
 समस्ते = सारे 
 क्षितिमण्डले  = भूमि मंडल के 

पूर्व काल में, स्वारोचिष मन्वन्तर में, चैत्र वंश में उत्पन्न सुरथ नामक सारे पृथ्वी मंडल का राजा था । 


तस्य पालयतः सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसान्
बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा ॥ ५ ॥ 

तस्य= वह , उस, उसके द्वारा आदि 
पालयतः = पालन करना 
सम्यक् = अच्छी प्रकार से 
प्रजाः= प्रजा को 
पुत्रानिवौरसान् = पुत्रान् इव औरसान्
पुत्रान् = पुत्रो 
इव = जैसे 
औरसान्= सगे
बभूवुः = होना 
शत्रवो = शत्रु 
भूपाः = राजा 
कोलाविध्वंसिनस्तदा= कोलाविध्वंसिनः तदा 
कोलाविध्वंसिनः = एक क्षत्रिये कुल का नाम ( कोला नामक प्रदेश को ध्वंस करने के कारण इस नाम से जाने गए )
तदा= तब 

वह (राजा सुरथ) प्रजा का अपने पुत्रों के सामान अच्छी प्रकार से पालन करता था , तब कोलविध्वंसी राजा के शत्रु हो गए । 

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः 
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविविध्वंसिभिर्जितः ॥ ६ ॥ 

तस्य = उस 

तैरभवद् = तैः अभवत्
तैः= उन , वे 
अभवत् = हुआ 
युद्धमतिप्रबलदण्डिनः युधम् अति प्रवल दण्डिनः 
युधम् = युद्ध 
अति = अत्यंत 
प्रबल  = शक्तिशाली 
दण्डिनः = दण्डनीति 
न्यूनैरपि = न्युनैः अपि कम

तैर्युद्धे तैः युद्धे 
तैः= उन से 
युद्धे = युद्ध में 
कोलाविविध्वंसिभिर्जितः कोलाविविध्वंसिभि: जितः
कोलाविविध्वंसिभि: = कोलविध्वंसियों के  
जितः = हराना  


उस दण्डनीति में अत्यंत प्रबल राजा का उनसे युद्ध हुआ ,  संख्या में कम होने पर भी उन कोलविधवासियों  ने उस राजा को हरा दिया । 

ततः सवपुरमायातो निजदेशाधिपोभवत् 
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः ॥ ७ ॥ 


ततः = तब , उसके बाद 
स्वपुरमायातो = स्वपुरम् +आयतो
स्वपुरम् = अपने नगर में 
आयतो = आ कर
निजदेशाधिपोभवत् = निज+ देश+ अधिपः+ अभवत्
निज = अपने 
देश = देश के
अधिपः =  राजा
अभवत् =  हुए
आक्रान्तः= आक्रमण किया 
स= वह 
महाभागस्तैस्तदा = महाभागः + तैः+ तदा
महाभागः= महाभाग 
तैः= उन 
तदा = तब 
प्रबलारिभिः  प्रबल+ अरिभि
प्रबल =शक्तिशाली
अरिभि = शत्रुओं ने 



तब अपने नगर में आ कर अपने देश के राजा हुए (सारी पृथ्वी पर अधिकार न रहा )

, तब  (वहां भी) उस महाभाग पर उन शक्तिशाली शत्रुओं ने आकर्मण कर दिया । 




अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः 


कोशो बलं चापहृतम् तत्रापि स्वपुरे ततः ॥ ८ ॥  




अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य = अमात्यै:+बलिभिः+दुष्टैः+दुबलस्य


अमात्यै: = मंत्रियों ने


बलिभिः = शक्तिशाली


दुष्टैः = दुष्ट
दुबलस्य = दुर्बल (राजा) का
दुरात्मभिः = बुरे
कोशो = खज़ाना
बलं = हथियार
चापहृतम्
च = और
अपहृतम् = हर लिया
तत्रापि
तत्र = वहां
अपि = भी
स्वपुरे = अपने नगर में
ततः = तब

वहां भी तब अपने नगर में शक्तिशाली, दुष्ट, बुरे मंत्रियों ने (उस) दुर्बल (राजा) का खज़ाना और हथियार लूट लिए ।  


ततो मृगयाव्याजेन् हृतस्वाम्यः स भूपतिः 
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ॥ ९ ॥ 

मृगयाव्याजेन् = मृगया +व्याजेन्
मृगया = शिकार के
व्याजेन् = बहाने से
हृतस्वाम्यः हृत+स्वाम्यः
हृत = छीने गए , नष्ट हुए
स्वाम्यः = प्रभुत्व
स= वह
भूपतिः = राजा
एकाकी = अकेले
हयमारुह्य = हयं + आरुह्य
हयं = घोड़े पर
आरुह्य = सवार हो
जगाम  = गए
गहनं = घने
वनम् = जंगल में

नष्ट हुए प्रभुत्व (वाले) वह राजा शिकार के बहाने से अकेले घोड़े पर सवार हो के घने जंगल में चले गए । 


स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः 
प्रशान्तश्वापदाकीर्णम् मुनिशिष्योपशोभितम् ॥ १० ॥ 

स= उसने
तत्राश्रममद्राक्षीद् = तत्र आश्रमम् द्राक्षीद्
तत्र= वहाँ
आश्रमम् = आश्रम
द्राक्षीद् = देखा
द्विजवर्यस्य= महृषि, द्विजों में श्रेष्ठ
मेधसः = मेधा
प्रशान्तश्वापदाकीर्णम् = प्रशान्त+पद: +आकीर्णम्
प्रशान्त= शांत
श्वापद:= जंगली जानवर
आकीर्णम् = भरपूर
 मुनिशिष्योपशोभितम् = मुनिशिष्य:+ उपशोभितम्
मुनिशिष्य:= मुनि शिष्यों  से
उपशोभितम् = शोभायमान

उसने वहां श्रेष्ठ द्विज मेधा का शांत जंगली जानवरों से भरपूर, मुनि शिष्यों से शोभायमान आश्रम देखा । 

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः 
इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे ॥ ११ ॥  

तस्थौ = ठहरना , रहना 
कंचित्स = कुछ 
कालं = समय 
च = और 
मुनिना = मुनि ने 
तेन = उनका 
सत्कृतः = स्वागत करना 
इतश्चेतश्च= इतः च एततः च  = यहां वहाँ 
विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे= विचरन+ तस्मिन्+ मुनिवर+ आश्रम 
विचरन= घूमना 
तस्मिन् = उस 
मुनिवर = मुनिश्रेष्ठ के 
आश्रम = आश्रम में 

उस मुनिवर के आश्रम में इधर उधर घूमते हुए कुछ समय के लिए ठहरे और मुनि ने उनका स्वागत किया । 

सोsचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः 
मत्पूर्वैः पालितम् पूर्वं मया हीनं पुरम् हि तत ॥ १२ ॥ 

सोsचिन्तयत्तदा = सः अचिन्यत तदा 
सः = वह 
अचिन्यत = सोचने लगा 
तदा = तब 
तत्र = वहां 
ममत्वाकृष्टचेतनः ममत्व आकृष्ट चेतनः 
ममत्व मोह से 
आकृष्ट = आकर्षित 
चेतनः = मन 
मत्पूर्वैः = मेरे पूर्वजों द्वारा 
पालितम् = पाला गया 
पूर्वं = पूर्वकाल 
मया = मुझसे 
हीनं = रहित 
पुरम् = नगर 
हि = निसंदेह 
तत = वह 

तब वह ममता से आकृष्टचित हो सोचने लगा पूर्व काल में मेरे पूर्वजों द्वारा पाल गया वह नगर निश्चय ही मुझसे रहित हो गया है । 

मद्भृत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः  पाल्यते न वा 
न जाने स प्रधानो में शूरहस्ती सदामदः ॥ १३ ॥  

मद् मेरे 

भृत्यैः = आश्रित 
सद्वृतैः = सदाचार से 
तैः वे 
धर्मतः धरम का 
पाल्यते = पालन करना 
न वा = अथवा नहीं 
न जाने= ना जाने 
स= वह 
प्रधानो मुख्य
में = मेरा 
शूरहस्ती = शूरवीर हाथी 
सदामदः = हमेशा मद में रहने वाला 


वे मेरे आश्रित सदाचार से धरम का पालन करते हैं या नहीं , ना जाने मेरा प्रधान हमेशा मद में रहने वाला शूरवीर हाथी ...

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते 

ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः ॥ १४ ॥ 

मम = मेरे 

वैरिवशं = वैरि वशम् शत्रुओं के आधीन 
यातः = जा कर 
कान् = कैसे, कौन से 
भोगानुपलप्स्यते = भोगान् उपलप्स्यते 
भोगान्= भोगों को 
उपलप्स्यते = प्राप्त करता होग। भोगता  होगा 
ये = जो 
ममानुगता = मम अनुगता 
मम= मेरा 
अनुगता = अनुसरण करने वाले 
नित्यं = रोज़ 
प्रसादधनभोजनैः प्रसाद + धन + भोजनैः 
प्रसाद = कृपा 
धन = धन 
भोजनैः = भोजन 


वह हाथी) मेरे शत्रुओं के आधीन जा कर कौन से भोगो का भोगता होगा ? रोज़ कृपा , धन और भोजन के लिए मेरा अनुसरण करने वाले...

अनुवृत्तिम् ध्रुवम् तेsद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम् 

असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम् ॥ १५ ॥

अनुवृत्तिम् = अनुसरण 

ध्रुवम् = निश्चय ही 
तेsद्य= ते+ अद्य= वे अब 
कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम् = कुर्वन्तिः+ अन्य+ महिभृताम्  
कुर्वन्तिः = करते होंगे 
अन्य= दूसरे 
महिभृताम्  राजाओं का 
असम्यग्व्ययशीलैस्तैः = असम्यग् व्ययशीलैः तैः
असम्यग् = अनुचित 
व्ययशीलैः = व्यय करने वाले 
तैः = वे 
कुर्वद्भिः = करते होंगे 
सततं = लगातार 
व्ययम्= व्यय , खर्च 


वे अब निश्चय ही दूरसरे राजाओं का अनुसरण करते होंगे । अनुचित व्यय करने वाले वे लगातार खर्च करते होंगे |

संचितः सोsतिदुःखेन क्षयम् कोशो गमिष्यति 

एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः ॥ १६ ॥ 

संचितः = संचित किया , इकठ्ठा किया 

सोतिदुःखेन = स अति दुःखेन 
स = वह 
अति= अत्यंत 
दुःखेन= दुखों से , कष्ट से 
क्षयम् = नष्ट 
कोशो = खज़ाना 
गमिष्यति = होना 
एतच्चान्यच्च एतत च अन्यत च = यह वह 
सततं = लगातार 
चिन्तयामास = सोचते रहना 
पार्थिवः = राजा 


अत्यंत कष्ट से संचित किया वह खज़ाना नष्ट हो जाएगा । राजा लगातार यह वह सोचते रहते थे । 

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः

स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेsत्र कः ॥ १७  ॥ 

तत्र = वहां 

विप्र = विप्रवर मेधा के 
आश्रम = आश्रम 
अभ्याशे = समीप
वैश्यम् = वैश्य को
एकम् = एक
ददर्श = देखा
सः = उस 
पृष्ठः = पूछा
तेन = उससे
कः = कौन
त्वं =  तुम
भो = श्रीमान
हेतुः = कारण उद्देश्य 
च = और
आगमन = आने का 
अत्र = यहां
कः = क्या है 


उसने (राजा ने ) विप्रवर के आश्रम के समीप एक वैश्य को देखा ।  उसने उस से पूछा श्रीमान आप कौन हैं और आपके यहाँ आने का कारन क्या है । 

सशोक इव कस्मात्त्वम् दुर्मना इव लक्ष्यसे

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्  ॥ १८ ॥ 

सशोक = दुखी 

इव =जैसे , तरह 
कस्मात् = किस लिए 
तवं = तुम 
दुर्मना = अनमना 
लक्ष्यसे = दिखाई देते हो 
इति = इस प्रकार 
आकर्ण्य = सुन कर 
वचः = वचनों को 
तस्य = उस 
भूपतेः = राजा के 
प्रणय = प्यार से 
उदितम् = बोले गए 


तुम दुखी से अनमने से किस लिए दिखाई देते हो । इस प्रकार उस राजा के प्रेम से बोले गए वचनों को सुन कर.… 

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपं ॥ १९ । 


प्रत्युवाच = उत्तर दिया 

स = उस 
तं = उस 
वैश्यः = वैश्य ने 
नृपं = राजा को 
प्रश्रय = विनीत , सम्मान से 
अवनतो = प्रणाम 

उस वैश्य ने उस राजा को विनीत हो प्रणाम करके उत्तर दिया । 


वैश्य उवाच  ॥ २० ॥ 


वैश्य बोला । 


समाधिर्नाम वैश्योअहमुत्पन्नो धनिनाम् कुले ॥ २१ ॥ 


समाधिः = समाधी

नाम = नाम का 
वैश्य =वैश्य 
अहम् = मैं 
उत्पन्नो = पैदा हुआ 
धनिनाम् = धनि 
कुलम = कुल में 


मैं धनि कुल में पैदा हुआ समाधि नाम का वैश्य हूँ । 



पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः 
विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रादाय में धनम् ॥ २२ ॥ 

पुत्रदारै: = पुत्र और पत्नी द्वारा 
निरस्तः = त्यागने पर 
धनलोभादसाधुभिः = धन लोभात् असाधुभिः  = धन लोभी बुरे 
विहीनः = बिना 
धनैर्दारैः = धन पत्नी 
पुत्र = पुत्रो 
आदाय = ले कर 
में = मेरा 
धनम् = धन 

धन लोभी बुरे पुत्र, पत्नी ने मेरा धन ले कर (मुझे) त्याग दिया । (अब मैं ) धन, पुत्र, पत्नी से रहित हूँ । 


वनमभ्यागतो दुखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः 
सोअहम् न वेदभि पुत्राणाम्  कुशलाकुशलात्मिकाम् ॥  २३ ॥ 

वनम् = वन में
अभ्यागतो = आ गया 
दुखी = दुखी 
निरस्तः = त्याग गया 
च = और 
आप्त = मित्र 
बन्धुभिः = रिश्तेदार 
स = वह , उस 
अहं = मैं 
न = नहीं 
वेदभि = जनता 
पुत्राणाम् = पुत्रों की 
कुशल कुशलता 
अकुशल अकुशलता 
आत्मिकाम् = विषय 

मित्र स्वजनों द्वारा त्याग गया दुखी हो वन में आ गया । मैं पुत्रो की कुशलता अकुशलता के विषय में नहीं जनता । 

प्रवृत्तिम् स्वजनानाम्  च दाराणाम् चात्र संस्थितः 
किं नु तेषाम् गृहे क्षेममक्षेम किं नु साम्प्रतम् ॥ २४ ॥ 

प्रवृत्तिम् = कार्य समाचार 
स्वजनानाम् = स्वजनों के 
 च = और 
 दाराणाम् = पत्नी के 
अत्र = यहां 
संस्थितः= रह कर
तेषाम् =  उनके
गृहे = घर में 
 किं नु क्षेमम् = क्या कुशलता है 
 किं नु अक्षेमम् = क्या अकुशलता है 
साम्प्रतम् = अब, आजकल 

यहां रहते हुए मैं स्वजनों और पत्नी का समाचार नहीं जनता ,  अब उनके घर में  क्या कुशलता है क्या अकुशलता है । 


कथं ते  किं नु सदवृत्ता दुर्वृत्ता किं नु मे सुताः ॥ २५ ॥ 

कथं = क्या 
ते = वे 
मे = मेरे 
सुताः = पुत्र 
किं नु सदवृत्ता = सदाचारी हैं 
किं नु दुर्वृत्ता = दुराचारी है 

क्या वे मेरे पुत्र सदाचारी है या दुराचारी है । 

राजोवाच ॥ २६ ॥ 


राजा बोला । 


यैर्निरस्तो भवाँल्लुब्धैः  पुत्रदारादिभिर्धनैः ॥ २७ ॥ 


यैः = जिन

निरस्तो = त्याग दिया 
भवान् = आप 
लुब्धैः = लोभ में 
पुत्र = पुत्र 
दारादिभि पत्नी आदि द्वारा 
धनैः = धन के 

जिन धन के लोभी पुत्र पत्नी आदि द्वारा आप त्याग दिए गए। 


तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाती मानसं ॥ २८ ॥ 


तेषुम् = उनके के लिए 

किं = कैसे 
भवतः = आपका 
स्नेहम् = प्यार से 
अनुबध्नाति = बंधता है 
मानसं = मन 


उनके लिए आप का मन कैसे प्यार में बंधता है । 

वैश्य उवाच ॥ २९ ॥

 वैश्य बोला 

एवमेतद्यथा प्राह  भवानस्मद्गतं वचः ॥ ३० ॥ 

एवं ही है 
एतत् ऐसा 
यथा = जैसे, जो 
प्राह = कहना 
भवान् = आपने 
अस्मद्= मेरे 
गतम् = लिए, बारे में 
वचः = बात 


आपने मेरे लिए जैसी बात कही है ऐसा ही है ।


किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरताम् मनः 
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः ॥ ३१ ॥ 
पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव में मनः 
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते ॥ ३२ ॥ 

किं = क्या 
करोमि = करूँ 
न = नहीं 
बध्नाति = बंधता 
मम = मेरा 
निष्ठुरताम् = निष्ठुरता से 
मनः = मन  
यैः = जिन ने 
संत्यज्य = त्याग कर 
पितृस्नेहं = पिता के स्नेह 
धनलुब्धै: = धन के लोभ में 
निराकृतः = अपमानित किया 
पतिस्वजनहार्दं = पति और आत्मीय के प्रति प्यार 
च = और 
हार्दि = प्रीति 
तेष्वेव = उनके ही लिए 
मे= मेरे 
मनः = मन में 

किमेतन्नाभिजानामि = किं एततत् न अभिजानामी 
किं = क्या 
एतत् = यह 
 न अभिजानामी = नहीं जनता 
जानन्नपि = जानते हुए भी 
महामते = महाज्ञानी 

क्या करूँ मेरा मन निष्ठुर नहीं होता जिन्होंने धन के लोभ में पिता के लिए स्नेह ,पति और आत्मीय के लिए प्यार त्याग कर अपमानित किया उन्ही के प्रति मेरे मन में प्रीति है । 
हे महामते मैं जनता हुआ भी नहीं जनता की यह क्या है । 

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि  बन्धुषु 
तेषाम् कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यम् च जायते ॥ ३३ ॥ 
करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्  ॥ ३४ ॥ 

यत् = जो 
प्रेमप्रवणं = प्रेममग्न 
चित्तं = मन 
तेषाम् कृते = उनके लिए 
मे मैं 
विगुणेष्वपि = विगुणेषु अपि = दुर्गुणी भी 
निःश्वासो = आहें , ठंडी सांसें 
दौर्मनस्यम् = दुखी मन 
च और 
जयते = होना 
करोमि किं = क्या करूँ 
यत् = जो 
न = नहीं 
मनः = मन 
तेषु = उनके 
अप्रीतिषु = प्रीति का अभाव 
निष्ठुरम् = निष्ठुर 

दुर्गुणी लोगों के लिए भी जो मेरा  मन प्रेममग्न है । उनके लिए ठंडी साँसे ले और दुखी हो रहा है । क्या करूँ उनकी प्रीति के अभाव में भी मेरा मन निष्ठुर नहीं हो रहा ।  

मार्कण्डेय उवाच ॥ ३५ ॥ 

मार्कण्डेय बोला । 

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ ॥ ३६ ||
समाधिर्नाम वैश्योसौ स च पार्थिवसत्तमः 
कृत्वा तु तौ यथान्यायम् यथार्हम् तेन संविदम् ॥ ३७ ॥ 


तत= तब 

तौ = वे दोनों 
सहितौ = इकट्ठे 
विप्र = हे विप्र 
तं = उस 
मुनिं = मुनि के 
समुपस्थितौ = पास गए 
समाधिर्नाम= समाधिः नाम = समाधि नाम का 
वैश्य
असौ = वह 
स = वह 
च = और 
पार्थिवसत्तमः = श्रेष्ठ राजा ( सुरथ)

हे विप्र , तब,  वह समाधि नाम का वैश्य और वह श्रेष्ठ राजा( सुरथ), दोनों इकट्ठे उस मुनि के पास गए । 



कृत्वा = कर के 

तु = और 
तौ = उन दोनों ने 
यथान्यायम् = न्याय अनुसार 
यथार्हम् = यथा अर्हं = योग्यता अनुसार 
तेन = उनको 
संविदम् = अभिवादन किया 


उन दोनों ने न्याय अनुसार और योग्यता अनुसार उसे अभिवादन किया । 

उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ ॥ ३८ ॥ 

उपविष्टौ = पास बैठ कर 
कथाः = वार्तालाप 
काश्चित् = कुछ 
चक्रतुः = आरभ करना 
वैश्य
पार्थिवौ


पास बैठ कर  वैश्य और पार्थिवौ ने वार्तालाप आरम्भ किया । 


राजोवाच ॥ ३९ ॥ 
राजा बोला । 

भगवंस्त्वामहम्  प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत् ॥ ४० ॥ 


भगवन् = भगवन 

तवां = आप से 
अहम् = मैं 
प्रष्टुम् = पूछने की 
इच्छामि = इच्छा है 
एकं = एक 
वदः = कहिये , बताइये 
व = आप 
तत् = वह 


भगवन मैं आपसे एक (बात) पूछना चाहता हूँ , आप वह बताइये । 

दुखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना

ममत्वम् गतराज्यस्य राज्यांगेष्वखिलेष्वपि ॥  ४१ ॥ 

दुखाय = दुखी 

यन्मे = यत मे = जो मेरा 
मनसः = मन 
स्वचित्तायत्ततां = स्व चित्त आयत्तताम् = मेरा मन आधीनता 
विना = रहित 
ममत्वम् = ममता 
गतराज्यस्य = गए राज्य के 
राज्यांगेष्वखिलेष्वपि = राज्य अङ्गेषु अखलेषु अपि = राज्य के सभी अंगों में 

मेरा मन जो दुखी है। मेरा मन अधीनता रहित है । गए राज्य और राज्य के सभी अंगों में मेरी ममता है । 




जानतोपि यथाज्ञस्य किमेतनमुनिसत्तम 

अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः ॥ ४२ ॥ 


जानतोपि = जानते हुए भी 

यथाज्ञस्य = ऐसा अज्ञान
किमेतन = किं एतत = ये क्या है 
मुनिसत्तम = मुनि श्रेष्ट 
अयं = यह (वैश्य) 
च = और 
निकृतः = बेईमान 
पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः = पुत्रः दारैः भृतैः तथा उज्झितः = इस प्रकार पुत्र पत्नी भृत्यों द्वारा त्याग गया 

हे मुनि श्रेष्ट जानते हुए भी ऐसा अज्ञान, ये क्या है ? और यह वैश्य भी बेईमान पुत्र, पत्नी और भृत्यों द्वारा त्याग गया , इस प्रकार



स्वजनेन च सन्त्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति 

एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ  ॥ ४३ ॥ 

स्वजनेन = अपने लोगों द्वारा 

च = और 
सन्त्यक्तस्तेषु संत्यक्त: तेषु 
संत्यक्त: त्याग दिया 
 तेषु = उनके लिए 
हार्दी = प्रीति 
तथाप्यति = तथापि अति = तब भी अत्यंत 
एवमेष = इस प्रकार यह 
तथाहं =  उस प्रकार मैं
च = और 
द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ द्वावपि अत्यंत दुःखितौ = दोनों अत्यंत दुखी हैं 

(यह वैश्य)  अपने लोगों द्वारा त्यागा गया ,तब भी उनके लिए अत्यंत प्रीति है । इस प्रकार यह और उस प्रकार यह और उस प्रकार मैं अत्यंत दुखी हैं । 






दृष्टदोषेsपि विषय ममत्वाकृष्टमानसौ 

तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि ॥ ४४॥ 
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढ़ता ॥ ४५ ॥ 

दृष्टदोषेअपि दोष देखने पर भी 

विषय = विषय के लिए 
ममत्वाकृष्टमानसौ = ममत्व आकृष्ट मानसो = ममता में मन आकृष्ट हो रहा है  
तत = तब 
किं= क्या 
एतत= यह 
महाभाग 
यत मोहो = जो मोह में 
ज्ञानिनोरपि = ज्ञानी होते हुए भी 
मम = मेरी 
अस्य = इसकी 
च = और 
भवति = है , घटित होना 
ऐषा = ऐसी 
विवेकान्धस्य = विवेकशून्य 
मूढ़ता = मूढ़ता 

दोष देखने पर भी विषय के लिए ममता में मन आकृष्ट हो रहा है , तब यह क्या है जो  मोह में ज्ञानी होते हुए भी मेरी और इसकी ऐसी विवेकशून्य मूर्खता हो रही है । 


ऋषिरुवाच   ॥ ४६ ॥ 



ऋषि बोला । 


ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे ॥ ४७॥
ज्ञानम् =ज्ञान
अस्ति = है
समस्तस्य =सब
जन्तोः = जीवों
विषयगोचरे = विषय मार्ग


विषय मार्ग(अनुभूति) का ज्ञान सब जीवों को है 

विषयश्च महाभाग यान्ति चैवं पृथक्पृथक् ।
विषयश्च = और विषय
महाभाग = हे महाभाग
यान्ति = पाना , प्राप्ति
चैवं च एवं और इस प्रकार
पृथक्पृथक् अलग अलग हैं 


और इस प्रकार हे महाभाग विषय और विषय को प्राप्ति ( के तरीके) अलग अलग हैं 
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे ॥ ४८॥

दिवान्धाः= दिन में अंधे अर्थात दिन में नहीं देख सकते

प्राणिनः = प्राणी
केचित् = कुछ
रात्रौ = रात को
अन्धः = नहीं देख पाते
तथा = इस प्रकार
अपरे = दूसरे

कुछ प्राणी दिन में नहीं देख सकते इस प्रकार कुछ रात में नहीं देख सकते 


केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः ।

ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते न हि केवलम् ॥ ४९॥

केचिद्= कुछ

दिवा =दिन में
तथा= इसी प्रकार
रात्रौ = रात को
प्राणिनः = प्राणी
तुल्य = सामान रूप से
दृष्टयः = देख पाते हैं


इसी प्रकार कुछ प्राणी दिन तथा रात में सामान रूप से देख पाते हैं ।

ज्ञानिनो = ग्यानी हैं

मनुजाः = मनुष्य
सत्यं = सत्य है
किंतु = परन्तु
ते = वे
न = नहीं
हि = निश्चित रूप से
केवलम् = सिर्फ

मनुष्य गाणी हैं ये सच है परन्तु निश्चित रूप से सिर्फ वे ही ग्यानी नहीं हैं । 


यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः ।

ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम् ॥ ५०॥
यतो हि = इसी प्रकार
ज्ञानिनः = समझदार हैं
सर्वे = सब
पशुपक्षिमृगादयः = पशु पक्षी मृग आदि प्राणी


इसी प्रकार सब पशु पक्षी मृग आदि प्राणी समझदार हैं ।


ज्ञानं = ज्ञान

च = और
 तद् मनुष्याणां = जैसा मनुष्यों का
यत्तेषां यत तेषाम् = वैसा ही उन
मृगपक्षिणाम् पशु पक्षियों का है


और जैसा मनुष्यों का ज्ञान हैवैसा ही उन पशु पक्षियों का है



मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः ।

मनुष्याणां = मनुष्यों की
च = और
यत्तेषां =यत् तेषाम् = जो उनकी
तुल्यमन्यत्तथोभयोः ।
तुल्यम्= सामान है
अन्यत् = दूसरी बातें
तथा = इस प्रकार
उभयोः = दोनों में


और जैसी मनुष्यों की होती है वैसी उनकी इस प्रकार दोनों की समझ और दूसरी बातें सामान है । 

ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु ॥ ५१॥


कणमोक्षादृतान् मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा ।


ज्ञानेऽपि= ज्ञान  भी 

सति = होते हुए (उपस्थित होते हुए )
पश्यैतान् = देखो
पतङ्गान्= पक्षियों को
शाव = शावकों की
चञ्चुषु = चोंच में

कणमोक्षादृतान् =अन्न के दाने दे रहे हैं

मोहात्पीड्यमानानपि
मोहात् = मोह वश
पीड्यमानानपि   = पीड़ित होते हुए भी
क्षुधा = भूख से


 ज्ञान होते हुए भी उन पक्षियों को देखो जो भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश शावकों की चोंच में अन्न के दाने दे रहे हैं 

मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति ॥ ५२॥
लोभात् प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि ।

मानुषा = मनुष्य

मनुजव्याघ्र = नर श्रेष्ट
साभिलाषाः = अभिलाषा युक्त
सुतान् = पुत्रों के
प्रति =लिए

लोभात् = लोभ से

प्रत्युपकाराय = प्रति उपकाराय = उपकार के बदले के लिए
नन्वेतान् = ननु एतां = निश्चय ही ये
किं न पश्यसि = क्या नहीं देखते

हे नरश्रेष्ठ क्या आप नहीं देखते की मनुष्य उपकार के बदले के लिए लोभवश पुत्रों के लिए अभिलाषा युक्त हैं ।


तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः ॥ ५३॥
महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा ।

तथापि= तो भी (ज्ञान होते भी )

 ममतावर्त्ते= ममता के चक्र
 मोहगर्ते= मोह के गर्त में
 निपातिताः = गिरे हैं
महामायाप्रभावेण= महामाया के प्रभाव से
संसारस्थितिकारिणा= संसार की स्तिथि(जनम मरण की परम्परा ) की कारक

तो भी (ज्ञान होते भी ) संसार की स्तिथि(जनम मरण की परम्परा ) की कारक महामाया के प्रभाव से  ममता के चक्र, मोह के गर्त में गिरे हैं । 



तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः ॥ ५४॥

महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्

तन्नात्र विस्मयः कार्यो= तो यहां आश्चर्य क्या करना

योगनिद्रा = योगनिद्रा
जगत्पतेः = जगत्पति
महामाया = महामाया
हरेश्चैषा = हरी और यह
तया = उसने
सम्मोह्यते =सम्मोहित किया है
जगत्= संसार

तो यहां आश्चर्य क्या करना, योगनिद्रा महामाया ने जगत्पति हरि और इस सारे संसार को सम्मोहित किया हुआ है । 



ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ॥ ५५॥

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।

ज्ञानिनामपि=ज्ञानियों के भी
चेतांसि = मन को
देवी देवी
भगवती = भगवती
हि सा = वे ही

बलादाकृष्य बलात् आकृष्य = बलपूर्वक आकृषित करके

मोहाय= मोह में
महामाया = महामाया
प्रयच्छति = डाल देती हैं

वे भगवती महामाया ही ज्ञानियों के मन को भी  बलपूर्वक आकृषित करके मोह में डाल देती हैं । 




तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम् ॥ ५६॥


सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ।

तया = उनके द्वारा ही
विसृज्यते = रचा गया
विश्वं = ब्रह्माण्ड
जगदेतच्चराचरम्
जगत एतद चराचरम् =ये चर अचर जगत

सैषा = वे ही

प्रसन्ना = प्रसन्न होने पर
वरदा = वरदान
नृणां = मनुष्यों की
भवति = होती हैं
मुक्तये = मुक्ति का


उनके द्वारा ही ब्रम्हांड और ये  चर अचर जगत रचा गया । वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों की मुक्ति का वरदान होती हैं |



सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ॥ ५७॥


संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ ५८॥


सा =वह 

विद्या = विद्या (ज्ञान )
परमा = परम 
मुक्तेर्हेतुभूता मुक्ति की हेतु (कारण) 
सनातनी=सनातनी (अविनाशी)eternal 

संसारबन्धहेतुश्च = और संसार बंधन की हेतु 

सैव = वे ही 
सर्वेश्वरेश्वरी =सम्पूर्ण ईश्वरों की अधीश्वरी 


वह परम विद्या संसार बंधन और मोक्ष की हेतु सनातनी देवी हैं, वे ही सम्पूर्ण ईश्वरों की अधीश्वरी हैं । 


राजोवाच ॥ ५९॥

राजा बोला । 

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान् ॥ ६०॥

भगवन् = हे भगवन 
का हि = कौन हैं 
सा देवी = वह देवी 
महामायेति= महामाया इति= महामाया इस प्रकार 
यां = जिन्हेँ
भवान् = आप 


भगवन जिन्हें आप महामाया कहते हैं वो देवी कौन हैं  । 



ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज ।

यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा ॥ ६१॥

ब्रवीति = बताइये

कथं = कैसे 
उत्पन्ना = प्रकटीकरण, उत्पन्न 
सा= वह 
कर्म= कार्य 
अस्याः = उसके 
च = और 
किं = क्या 
द्विज =ब्राह्मण 
यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा
यत = जो 
प्रभावा = प्रभाव, शक्ति  
च = और 
सा = वह 
देवी=देवी 
यत = जो 
स्वरूपा = स्वरुप 
यत = जो 
उद्भवा = रचना 

हे ब्राह्मण बताइये वो कैसे उत्पन्न हुईं, उनके क्या कार्य हैं, उनका क्या प्रभाव है क्या स्वरुप है कैसे रचना हुई । 




तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर ॥ ६२॥


तत्सर्वं = वह सब 

श्रोतुमिच्छामि श्रोतुम् इच्छामि = सुनना चाहता हूँ 
त्वत्तो = आपसे 
ब्रह्मविदां वर = हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ 


 हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वह सब आपसे सुनना चाहता हूँ ।



ऋषिरुवाच ॥ ६३॥


ऋषि बोला । 



नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् ॥ ६४॥


नित्य = नित्य , चिरकालिक , अविनाशी 

एव = ही 
सा= वह 
जगत=संसार 
मूर्तिः = मूर्ति, रूप 
तया = उसका 
सर्वं = सारा 
इदं= यह 
ततम् = फैला है 


वह नित्य स्वरुप है , यह फैला हुआ सारा संसार उसी का रूप है । 


तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम ।

तथापि= तब भी 
तत् समुत्पत्तिः उनका जनम हुआ 
बहुधा = अनेक बार 
श्रूयतां = सुनो 
मम = मुझसे 

तब भी उनका अनेक बार जनम हुआ वह मुझसे सुनो । 



देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा ॥ ६५॥


देवानां  देवताओँ के 

कार्यसिद्ध्यर्थम= कार्यों को पूर्ण करने के लिए 
आविर्भवति = प्रकट होती हैं 
सा यदा वह जब 


देवताओं के कार्यों को  पूर्ण करने के लिए जब वो प्रकट होती है । 


उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते ।


उत्पन्न= उत्पन्न हुई 

इति =ऐसा 
तदा = तब 
लोके= संसार में
सा = वह 
नित्य अपि = नित्य होते भी 
अभिधीयते = कहा जाता है 


तब नित्य होते हुए भी संसार में  उनका जनम हुआ ऐसा कहा जाता है । 



योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते ॥ ६५॥


आस्तीर्य शेषमभजत् कल्पान्ते भगवान् प्रभुः ।



योगनिद्रां =योगनिद्रा

यदा =जब 
विष्णुः =विष्णु
जगति = जगत को 
एकार्णवीकृते = एक अर्णव कृते = एक समुन्द्र करके 
आस्तीर्य = शैया बिछा के फैला के 
शेषम् = शेषनाग 
अभजत् = लीन थे 
कल्पान्ते = कल्प के अंत में 
भगवान् प्रभुः भगवान विष्णु 


जब भगवान विष्णु संसार को एक समुन्दर बना शेषनाग की शिया बिछ कर योगनिद्रा में लीन थे 



तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ ॥ ६७॥




विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ ।


तदा = तब 

द्वौ = दो 
असुरौ = राक्षस 
घोरौ = भयानक 
विख्यातौ = प्रसिद्ध
मधुकैटभौ = मधु कैटभ 
विष्णुकर्णमलोद्भूतौ = विष्णु के कान के मेल से उत्पन्न 
हन्तुम् = मारने के लिए 
ब्रह्माणं = ब्रह्मा को 
उद्यतौ = तैयार हुए 


तब मधु कैटभ नाम से कुख्यात दो भयंकर राक्षस विष्णु के कान के मेल से उत्पन्न हुए और ब्रह्मा को मरने के लिए तैयार हुए । 



स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः ॥ ६८॥


दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम् ।


सः= उस 

नाभिकमले= नाभि कमल ने 
विष्णोः= विष्णु की 
स्थितः= स्थित 
ब्रह्मा= ब्रम्हा ने 
प्रजापतिः= प्रजापति 
दृष्ट्वा= देखा 
तौ असुरौ= उन दोनों राक्षसों 
च= और 
उग्रौ = भयंकर 
प्रसुप्तम् =सोते हुए 
च = और 
जनार्दनम्= विष्णु 


उस विष्णु की नाभि कमल में स्थित प्रजापति ब्रम्हा ने उन दो उग्र राक्षसों को और सोते हुए भगवान विष्णु को देखा 


तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयः स्थितः ॥ ६९॥


विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम् ।


तुष्टाव = मन्त्रों द्वारा प्रशंसा ki

योगनिद्रां = योगनिद्रा की 
ताम् = उस 
एकाग्रहृदयस्थितः = एकाग्र चित होकर 
प्रबोधनार्थाय = जगाने के लिए 
हरेः =विष्णु को 
हरिनेत्रकृतालयाम् । हरी नेत्र कृत आलयाम् = हरी की आँखों में किया है घर जिसने 


उस ब्रह्मा ने भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में स्थत योगनिद्रा की प्रशंसा की । 


विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम् ॥ ७०॥

विश्वेश्वरीं= विश्व की अधीश्वरी
जगद्धात्रीं= जगत को धारण करने वाली 

स्थितिसंहारकारिणीम् = संसार का पालन और संहार करने वाली 



निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः ॥ ७१॥


निद्रां भगवतीं भगवती योग निद्रा 

विष्णोरतुलां विष्णोः अतुलाम् =अतुलनीय
तेजसः = शक्ति 
 प्रभुः= प्रभु 

प्रभु विष्णु की योगनिद्रा भगवती अतुलनीय शक्ति है |



ब्रह्मोवाच ॥ ७२॥

ब्रह्मा बोले । 

त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका ॥ ७३॥


त्वं = तुम   

स्वाहा = स्वाहा मन्त्र (प्रत्येक आहुति अर्पण पर बोले जाने वाला शब्द )
त्वं = तुम 
स्वधा = हवन में अर्पित की जाने वाली सामग्री 
त्वं हि = तुम ही 
वषट्कारः = वषट्कार (यज्ञ में आहुतियों के सम्पूर्ण होने के बाद बोले जाना वाला शब्द ) 
स्वरात्मिका = स्वर की आत्मा हो । 


तुम  स्वाहा मन्त्र ,  तुम  हवन में अर्पित की जाने वाली सामग्री , तुम ही वषट्कार (यज्ञ में आहुतियों के सम्पूर्ण होने के बाद बोले जाना वाला शब्द ) स्वर की आत्मा हो ।


सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ।

अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्याविशेषतः ॥ ७४॥

सुधा = जीवन दायिनी सुधा 

तवं = तुम 
अक्षरे =अक्षर  
नित्ये = नित्य 
त्रिधा = तीन 
मात्रात्मिका मात्रा आत्मिका = मात्राओं का आधार या स्वरुप 
स्थिता = स्थित 
अर्धमात्रा = आधी मात्राएँ बिंदु रुपी 
स्थिता = स्थित 
नित्या = स्थायी 
यानुच्चार्याविशेषतः = या अनुच्चार्या विशेषतः = जिनका उच्चारण विशेष रूप से नहीं होता है 

तुम जीवनदायनी सुधा हो । तुम ही नित्य अक्षर में तीन मात्राओं (अकार, उकार , मकार ) के आधार में स्थित हो । और बिंदु रुपी आधी मात्र जिनका उच्चारण विशेष रूप से नहीं होता है में स्थित हो । 



त्वमेव सन्ध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा ।

त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत् सृज्यते जगत् ॥ ७५॥

त्वमेव = तवं एव = तुम ही 

सन्ध्या = संध्या 
सावित्री =सावित्री 
त्वं = तुम 
देवि = देवी 
जननी = जनम देने वाली  
परा = परम 
त्वयैतद्धार्यते = त्वयि - एतत्- धार्यते = तुमने- इस- धारण किया है 
विश्वं = विश्व को 
त्वयैतत् = तुमने इस 
सृज्यते = सृजन किया है 
जगत् = जगत का  

तुम ही संध्या , सावित्री , तुम परम जननी हो । तुमने इस विश्व को धारण किया है  , तुमने इस संसार का सृजन किया है । 




त्वयैतत् पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ।

त्वयैतत् = तुम इसका 
पाल्यते = पालन करती हो 
देवि = देवी 
त्वमत्स्यन्ते तवं अत्स्यन्ते = तुम ग्रास बना लेती हो  
च = और 
सर्वदा = हमेशा 


तुम इस (जगत ) का पालन करती हो , और तुम ही (कल्पांत में ) इसे ग्रस बना लेती हो (नष्ट कर देती हो )



विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने ॥ ७६॥


तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ।

विसृष्टौ = सृजन में 
सृष्टिरूपा = सृष्टिरूपा 
त्वं = तुम 
स्थितिरूपा= स्थितिरूपा 
 च = और 
पालने = पालते हुए 

तथा= इस प्रकार 

संहृतिरूपा= संहार रूप 
अन्ते = अंत में 
अस्य जगतः = इस जगत को 
जगन्मये = जगन्मयी देवी 


हे जगन्मयी देवी इस जगत के सृजन में तुम  सृष्टि रूपा  ,पालते हुए स्थितिरूपा(संरक्षक), तथा अंत में  संहार रूपा तुम्ही हो |


महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः ॥ ७७॥


महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृति हो । 



महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी ।

प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी ॥ ७८॥
भवती= आप 
प्रकृतिस्त्वं प्रकृतिः त्वं तुम प्रकृति    
च = और   
सर्वस्य =सब  की  

गुणत्रयविभाविनी = तीन गुणों को उत्पन्न करने वाली हो 


और आप  महामोहा  महादेवी महेश्वरी हो । तुम ही तीन गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो । 



कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ।

त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा ॥ ७९॥

कालरात्रि: = कालरात्रि 

महारात्रि := महारात्रि :
मोहरात्रिः = महारात्रि :
च = और 
दारुणा = भयंकर 
त्वं = तुम 
श्रीस्त्वमीश्वरी = श्री: त्वं ईश्वरी श्री तुम ईश्वरी 
त्वं=तुम 
ह्रीः=ह्री
बुद्धिर्बोधलक्षणा = बुद्धिः बोध लक्षणा = बोध स्वरूपा बुद्धि 


तुम भयंकर  कालरात्रि, महारात्रि, मोहरात्रि हो , तुम श्री, तुम ईश्वरी तुम ह्री, तुम बोध स्वरूपा बुद्धि हो ।



लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ।

खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा ॥ ८०॥

शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ।

लज्जा = लज्जा 
पुष्टिस्तथा= पुष्टिः(विकास , पोषण ) तथा = इस प्रकार 
तुष्टिस्त्वं= तुष्टिः त्वं  = तुष्टि(  संतोष ) तुम 
शान्तिः =शांति 
क्षान्तिरेव =क्षान्ति: = क्षमा 
च = और   
खड्गिनी = तलवार धारिणी
शूलिनी = शूल धारिणी 
घोरा = घोर रूपा 
गदिनी -= गदा धारिणी 
चक्रिणी = चक्र धारिणी 
तथा = और 
शङ्खिनी = शंख धारिणी 
चापिनी = चाप धारिणी 

बाणभुशुण्डीपरिघायुधा= बाण भुशुण्डी परिघ आयुधा बाण= भुशुण्डी परिघ शस्त्र  धारिणी 



इसी प्रकार  तुम लज्जा , पुष्टि , तुष्टि , शांति और क्षमा हो । तुम तलवार धारिणी, शूल धारिणी,  घोर रूपा , गदा धारिणी ,शंख धारिणी ,चाप धारिणी , तथा भुशुण्डी, परिघ, शस्त्र  धारिणी हो | 



सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ॥ ८१॥

सौम्या सौम्यतरा = सौम्यों में सौम्य(भद्र , सुशील, दयालु  )
अशेषसौम्येभ्य: = सभी सौम्यों से 
 त्वतिसुन्दरी=   
तु = भी , 
अति सुंदरी =  अत्यंत  सुन्दर हो 

सौम्यों में सौम्य ,सभी सौम्यों से भी  अत्यंत  सुन्दर हो | 



परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ।


परापराणां पर अपराणां = श्रेष्ठ और श्रेष्टतरों में  

परमा = परम (ultimate ) 
त्वमेव = तुम ही 
परमेश्वरी = परम ईश्वरी हो 

श्रेष्ठ और श्रेष्टतरों में  परम , परमेश्वरी तुम ही हो । 




यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके ॥ ८२॥


तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया ।


यच्च = यत् च= और जो  

किञ्चित्क्वचिद्वस्तु= किञ्चित् क्वचिद् वस्तु = कुछ कहीं भी वस्तु
सदसद्वाखिलात्मिके= सत् असत् व्= सत्य या असत्य 
अखिल = सब 
आत्मिके = आधार में 
तस्य = उन 
सर्वस्य = सब की 
 या= जो 
 शक्तिः शक्ति है 
 सा = वह 
 त्वं = तुम  हो 
तदा = तब 
किं = कैसे 
स्तूयसे = स्तुति हो सकती है 
मया = मेरे द्वारा 

और कहीं भी जो कुछ सत असत सब वस्तु है उन सभी के आधार में जो शक्ति है वह तुम हो ।तब मेरे द्वारा कैसे स्तुति हो सकती है । 




यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत् ॥ ८३॥


सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ।

यया= जो 
 त्वया = तुम्हारे द्वारा 
 जगत्स्रष्टा= जगत का रचयिता 
 जगत्पात्यत्ति= जगत पाति  = जगत का पालक 
अत्ति = संहार 
 यो = जो 
जगत् = जगत 

सोऽपि उनको भी 

निद्रावशं = नींद के वश में 
नीतः = लाया हुआ है या डाला हुआ है 
कस्त्वां = कः त्वां = कौन  तुम्हारी 
स्तोतुमिहेश्वरः = स्तोतुं= स्तुति कर सकता है 
 महेश्वर: =  महेश्वर विष्णु 


तुम्हारे द्वारा महेश्वर विष्णु को , जो जगत के सृजक ,पालक, और संहारकर्ता हैं ,उनको भी  नींद के वश में लाया हुआ है , तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है । 


विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ॥ ८४॥


कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ।


विष्णुः विष्णु 

शरीरग्रहणम् = शरीर ग्रहण 
अहम् = मुझे 
ईशान  = शिव 
एव = ही 
च = और 

कारिता:= करवाया है 

ते  = तुम्हारे द्वारा 
यतोऽतस्त्वां यतो अतः त्वां इसलिए अब तुम्हारी 
कः = कौन 
स्तोतुं = स्तुति 
शक्तिमान् शक्तिशाली 
भवेत् होगा


मुझे , विष्णु और शिव को तुमने ही शरीर ग्रहण करवाया है इसलिए अब तुम्हारी स्तुति करने वाला कौन समर्थ  है । 



सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता ॥ ८५॥


सा त्वम = तुम खुद 

 इत्थं = इस प्रकार 
प्रभावैः = प्रभावों से 
स्वैरुदारैर्देवि=  स्वैः उदारैः देवी = अपने उदार 
देवी = हे देवी 
संस्तुता = प्रशंसित हो 


हे देवी इस प्रकार तुम स्वयं अपने उदार प्रभावों से  प्रशंसित हो । 


मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ ।

मोहयैतौ= मोहय = मोहित कर दो 
 एतौ= इन 
 दुराधर्षौ = अहंकारी (अजेय)
असुरौ मधुकैटभौ = असुरों मधु कैटभ को 


इन अहंकारी असुरों मधु कैटभ को मोहित करिये 

प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु ॥ ८६॥


प्रबोधं = जागृत, जाग , जागरण 
 च = और 
 जगत्स्वामी = जगत के स्वामी 
नीयतामच्युतो नीयताम् = ले आना 
 अच्युतो = विष्णु का एक नाम 
 लघु= शीघ्र 

और शीघ्र ही जगत के स्वामी विष्णु को जागृत (अवस्था ) में ले आइये (जगा  दीजिये ) 




बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ॥ ८७॥


बोधश्च बोधः च = ज्ञान 

क्रियतामस्य =क्रियताम = सक्रिय करना 
अस्य = इन में 
हन्तुमेतौ = हन्तुं मरने का 
एतौ = इन 
महासुरौ= महा असुरों 


और इन (विष्णु ) में इन महासुरों को मरने का ज्ञान सक्रिय कर दीजिये । 



ऋषिरुवाच ॥ ८८॥

ऋषि बोला । 


एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा ॥ ८९॥


विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ ।


एवं = इस प्रकार 

स्तुता = स्तुति करने पर 
तदा = तब 
देवी = देवी 
तामसी = तामसी (तमोगुण की अधिष्ठात्री )
तत्र  = वहां 
वेधसा =ब्रह्मा ने 
विष्णोः = विष्णु को 
प्रबोधनार्थाय = जगाने के लिए 
निहन्तुं = मारने के लिए 
मधुकैटभौ = मधुकैटभ को 


इस प्रकार तब वहाँ ब्रह्मा द्वारा मधुकैटभ को मारने के लिए और विष्णु को जगाने के लिए स्तुति करने पर तामसी (तमोगुण की अधिष्ठात्री )  देवी


नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः ॥ ९०॥


निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।


नेत्रास्य = उनकी (विष्णु की ) आँखों 

नासिका= नाक 
बाहु = बाहों 
हृदयेभ्य = हृदय 
तथा = इस प्रकार 
उरसः = छाती 

निर्गम्य= निकल कर 

 दर्शने = दर्शन के लिए 
तस्थौ=  खड़ी हुई 
ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः अवयक्त जनम ब्रह्मा 


उनकी (विष्णु की ) आँखों, नाक ,ह्रदय छाती से इस प्रकार निकल कर अवयक्त जनम ब्रह्मा की दृषृ के समक्ष खड़ी हुई । 


उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः ॥ ९१॥


एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ ।

उत्तस्थौ = उठ खड़े हुए 
च= और 
जगन्नाथ:= जगत के स्वामी 
तया = उस योगनिद्रा से 
मुक्तो = मुक्त हो 
जनार्दनः= विष्णु 

एकार्णवे  = एक वर्ण हुई पृथ्वी पर 

अहिशयनात् = शेषनाग की शैया से 
ततः = तब 
स = उन्होए 
ददृशे = देखा 
च = और 
तौ = उन दोनों को 

और तब उस योगनिद्रा से मुक्त हो कर जगत के स्वामी विष्णु एकार्णव के जल में शेषनाग की शैय्या से उठ खड़े हुए और उन्होंने उन दोनों को देखा । 



मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ ॥ ९२॥


क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ ।


मधुकैटभौ = मधु कैटभ 

दुरात्मानौ = दुष्ट 
अतिवीर्यपराक्रमौ= अति बलशाली और पराकर्मी

क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं= क्रोध रक्त अक्षणौ= क्रोध से लाल आँखों वाले 

 अत्तुम् = खाने का 
 ब्रह्माणं =ब्राह्मण को 
 जनितोद्यमौ जनित  उद्यमौ = प्रयास कर रहे थे 


क्रोध से लाल आँखों वाले अति बलशाली और पराकर्मी  दुष्ट मधुकैटभ ब्राह्मण को खाने का प्रयास कर रहे थे । 


समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः ॥ ९३॥

समुत्थाय = उठ कर 
 ततस्ताभ्यां ततः ताभ्याम् = उन दोनों से 
 युयुधे = युद्ध किया 
 भगवान् हरिः = भगवान विष्णु ने 


तब भगवान विष्णु ने उठ कर उन दोनों से युद्ध किया । 


पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः ।

पञ्चवर्षसहस्राणि= पांच हज़ार वर्षों तक 
 बाहुप्रहरणो = बाहु युद्ध किया 
 विभुः = भगवन विष्णु ने 


 भगवन विष्णु ने पांच हज़ार वर्षों तक बाहु युद्ध किया । 


तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ ॥ ९४॥

उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम् ॥ ९५॥

तौ अपि बलोन्मत्तौ =वे भी बल से उन्मत 

महामाया= मोहमाया द्वारा 
विमोहितौ = मोहित हो कर 
उक्तवन्तौ = बोले 
वरोऽस्मत्त = हम से वरदान 
व्रियतामिति = व्रियताम् बोलो , मांगो 
 इति = इस प्रकार 
केशवम् = विष्णु को 


वे भी बल से उन्मत मोहमाया द्वारा मोहित हो कर इस प्रकार बोले , हम से वरदान  मांगो । 

श्रीभगवानुवाच ॥ ९६॥

भगवान विष्णु बोले । 


भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि ॥ ९७॥


किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मया ॥ ९८॥

भवेताम्  = होना 
अद्य = अब , आज 
मे = मुझसे 
तुष्टौ = प्रसन्न हैं 
मम = मेरे द्वारा 
वध्यौ = मारे  
उभौ = आप दोनों 
अपि = भी 
किम् = क्या 
अन्येन = दूसरा 
वरेण  = वरदान 
अत्र = यहां 
एतावत् = यही 
हि = निश्चित 
वृतम् = चुना  
मया ।= मेरे द्वारा 


अब आप मुझसे प्रसन्न हैं तो दोनों ही मेरे द्वारा मारे जाओ ,यहां(युद्ध में ) क्या दूसरा वरदान? , यही मेरे द्वारा चुना गया है । 


ऋषिरुवाच ॥ ९९॥

ऋषि बोला । 

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत् ॥ १००॥


विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः ।




वञ्चिताभ्याम् = ठगे जाने पर 

इति = इस प्रकार 
तदा = तब 
सर्वमापोमयं सर्वं = सारे 
आपोमयं = पानी से युक्त  
जगत् = संसार को 

विलोक्य = देख कर 

ताभ्यां = उन्होंने 
गदितो = कहा 
भगवान् = भगवान 
कमलेक्षणः = कमल नयन 


इस प्रकार ठगे जाने पर उन्होंने सारे जगत हो पानी से निहित देख कर भगवान कमल नयन से कहा । 


आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता ॥ १०१॥


आवाम्=हमें 

जहि=मारिये 
 न= नहीं 
यत्र= जहां 
उर्वी= पृथ्वी 
सलिलेन=पानी से 
परिप्लुता = तर हो , युक्त हो 


हमें जहां पृथ्वी पानी से युक्त न हो वहाँ मारिये । 


ऋषिरुवाच ॥ १०२॥

ऋषि बोला । 

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता ।

कृत्वा चक्रेण वै छिन्ने जघने शिरसी तयोः ॥ १०३॥

तथा=ऐसा ही हो 

इति=ये  
उक्त्वा =कह कर 
भगवता = विष्णु ने
शङ्खचक्रगदाभृता = शंख चक्र गदा धारी
चक्रेण = चक्र से 
वै छिन्ने कृत्वा = काट दिया 
जघने =  जाँघ पर रख कर 
शिरसी = सर 
तयोः = उनका 

ऐसा ही हो यह कहते हुए शंख चक्र गदा धारी विष्णु ने उनका सर जांघ पर 
रख कर चक्र से काट दिया । 


एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम् ।

प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः शृणु वदामि ते ॥ १०४॥

एवं = इस प्रकार 

ऐषा= वह 
समुत्पन्ना = उत्पन्न हुईं 
ब्रह्मणा = ब्रह्मा के 
संस्तुता =स्तुति करने पर 
स्वयम्= खुद 
प्रभावम् = प्रभाव 
अस्या = उस 
देव्याः = देवी के 
तु = और 
भूयः = फिर से 
शृणु = सुनो 
वदामि = बताता हूँ 
ते = वे 


इस प्रकार ब्रह्मा के स्वयं स्तुति करने पर वे प्रकट हुईं । देवी के और क्या प्रभाव हैं पुनः बताता हूँ , सुनो । 


। ऐं ॐ ।

॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥