Tuesday, March 24, 2015

॥ अथ कीलकस्तोत्रम् ॥

ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिवऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं
सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।


ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है । 

मार्कण्डेय उवाच ।

मार्कण्डेय बोला ।

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे ।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥ १॥

ॐ  
विशुद्धज्ञानदेहाय = विशुद्ध ज्ञान जिनका शरीर है, 
त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे= तीनों वेद रूपी दिव्य नेत्रों वालों 
श्रेयःप्राप्ति निमित्ताय = कल्याण प्राप्ति के हेतु 
नमः = नमस्कार है 
सोमार्ध धारिणे= अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाले 


विशुद्ध ज्ञान जिनका शरीर है, तीनों वेद रूपी दिव्य नेत्रों वालों, कल्याण प्राप्ति के हेतु ,  अर्ध चन्द्रमा धारण करने वाले शिव को नमस्कार है । 

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामपि कीलकम् ।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जप्यतत्परः ॥ २॥

सर्वं एतत् = इन सब 
विजानीयान = जान कर 
मन्त्राणाम्  = मन्त्रों को 
अभिकीलकम्= अभिकीलक के (बाधा निवारण के )
सोऽपि = जप में लगा
क्षेमम्= कल्याण
अवाप्नोति =  प्राप्त करता है 
सततं = निरंतर 
जप्यतत्परः= जप में लगा है 


इन सभी अभिकीलक मन्त्रों को जान कर निरंतर जप में लगा वह साधक कल्याण प्राप्त करता है । 

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तुनि सकलान्यपि ।
एतेन स्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति ॥ ३॥

सिद्ध्यन्ति = सिद्धि होती है 
 उच्चाटनादीनि = उच्चाटन आदि 
वस्तुनि = वस्तुओं की 
सकल अन्यपि = अन्य भी सभी 
एतेन = = इस 
स्तुवतां = स्तुति  से 
देवीं = देवी 
स्तोत्र मात्रेण = स्तोत्र मात्र  की 
सिद्ध्यति = सिद्ध हो जाती हैं 


उच्चाटन आदि और अन्य वस्तुओं की भी सिद्धि होती है , इस स्त्रोत्र की स्तुति मात्र से देवी सिद्ध हो जाती हैं । 

न मन्त्रो नौषधं तस्य न किञ्चिदपि विद्यते ।
विना जप्येन सिद्ध्येत्तु सर्वमुच्चाटनादिकम् ॥ ४॥

न मन्त्रो = न मन्त्र की 
नौषधं = न औषध की 
तस्य = उसको 
 न किञ्चिदपि विद्यते= न किसी भी साधन की 
विना जप्येन = बिना जाप के ही 
सिद्ध्येत्तु = सिद्ध हो जाते हैं 
सर्वमुच्चाटनादिकम् = सभी उच्चाटन आदि कर्म 


उनको न मन्त्र की, न औषध की ,न ही किसी साशन की जरुरत है , बिना जाप के उनके सभी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध हो जाते हैं । 

समग्राण्यपि सेत्स्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः ।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं  शुभम् ॥ ५॥

समग्राण्यपि = सब ही 
सिध्यन्ति = सिद्ध हो जाती हैं 
लोकशङ्कामिमां इमां = लोगों की इस शंका पर 
हरः = शिव ने 
कृत्वा = कर 
निमन्त्रयामास = बुला कर 
सर्वमेवमिदं  = सर्वं एवं इदं = ये सारा ही 
शुभम् = कल्याण कारी है 


(स्तोत्र  मात्र से ) सब कुछ सिद्ध हो जाता है , लोगों की इस शंका पर शिव ने उन्हें  बुला कर कहा ये सारा (सप्तशती पाठ ) ही कल्याणकारी है । 



स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तम् चकार सः ।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम् ॥ ६॥

स्तोत्रं = स्तोत्र को 
वै = यद्यपि 
चण्डिकाया:= चण्डिका के 
 तु = लेकिन 
तत्= तब 
 च = और 
गुप्तम् चकार सः = उस (महादेव ) ने गुप्त कर दिया 
समाप्ति: न  च = समाप्ति नहीं होती 
पुण्यस्य = पुण्य की 
तां = उसके 
यथावत् = वैसा ही है 
 नियन्त्रणाम् = नियंत्रण करने पर भी 


और तब यद्यपि महादेव ने चण्डिका  के स्तोत्र को गुप्त कर दिया , परन्तु उसके पुण्य की समाप्ति नहीं होती ,  नियंत्रण करने पर भी (उसका फल) वैसा ही है । 

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः ।


सोऽपि = वह भी 
क्षेमम अवाप्नोति = कल्याण प्राप्त करता है 
सर्वमेव = सभी 
न संशयः = बिना संशय के 

वह(अन्य मन्त्रों का पाठ करने वाला)  भी (सप्तशती के जप से ) बिना संशय के सभी  कल्याण प्राप्त करता है | 

कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ॥ ७॥
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति ।

कृष्णायां = कृष्ण पक्ष की 
वा = अथवा 
चतुर्दश्याम= चतुर्दशी 
अष्टम्यां वा = अथवा अष्टमी को 

समाहितः = एकाग्र चित्त  हो 

समाहितः = एकाग्र चित्त  हो 
ददाति = (देवी को अपना सर्वस्व ) अर्पित करता है 
प्रतिगृह्णाति = फिर उसे पुनः( प्रसाद के रूप में ) ग्रहण करता है 
न अन्यथ एषा प्रसीदति = अन्यथा यह प्रसन्न नहीं होती 

अथवा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी अथवा अष्टमी को एकाग्र चित्त हो (देवी को अपना सर्वस्व ) अर्पित करता है,फिर उसे पुनः( प्रसाद के रूप में ) ग्रहण करता है । (तभी देवी प्रसन्न होती है ) अन्यथा यह प्रसन्न नहीं होती । 


इत्थं रूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ॥ ८॥
इत्थं = इस प्रकार 
रूपेण = रूप में 
कीलेन = कीलक के 
महादेवेन = महादेव ने 
कीलितम् = कीलित किया है 


इस प्रकार कीलक के रूप में महादेव ने ( सप्तशती को ) कीलित किया है । 


यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम् ।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरम् ॥ ९॥


यो= जो 
 निष्कीलां = निष्कीलन करके 
विधाय एनां = विधि से इसका 
नित्यं जपति = नित्य जप करता  है 
संस्फुटम् = स्पष्ट उच्चारण से 
स सिद्धः = वह सिद्ध 
स गणः = वह गण 
सोऽपि गन्धर्वो = वही गन्धर्व 
जायते = होता है 
 नरम् = मनुष्य 


जो विधि से  निष्कीलन करके इसका  स्पष्ट उच्चारण से नित्य जप करता  है , वह सिद्ध , वह गण , वही मनुष्य गन्धर्व होता है । 

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते ।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमाप्नुयात् ॥ १०॥

न = नहीं 
चैवाप्य अटत:= घूमने रहने पर भी 
तस्य = उसे 
भयं = भय 
क्वाप इह =इस (संसार में )  कहीं  
जायते = होता 
न अपमृत्युवशं = अकाल मृत्यु के वश में नहीं 
याति = पड़ता 
मृतो = मृत्यु पर 
मोक्षम आप्नुयात् = मोक्ष को प्राप्त करता है 

घूमते रहने पर भी इस (संसार में )  कहीं  उसे भय नहीं होता , अकाल मृत्यु के वश में नहीं पड़ता , मृत्यु पर मोक्ष को प्राप्त करता है । 



ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति ।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ॥ ११॥

ज्ञात्वा = कीलक को जान कर ही 
प्रारभ्य = प्रारम्भ  
कुर्वीत = करता है 
 न कुर्वाणो = ऐसा न करने पर 
 विनश्यति = विनाश होता है 
ततो = इसलिए 
ज्ञात्वैव = जान कर ही 
सम्पन्नमिदं = इसको  सिद्ध करते हैं 
प्रारभ्यते = प्रारंभ करते हैं 
बुधैः = विद्वान 


कीलक को जान कर ही सप्तशती  का प्रारम्भ करना चाहिए , ऐसा न करने पर (फल का) विनाश होता है इसलिए कीलक जान कर ही विद्वान पुरुष सप्शती प्रारभ कर इसको (दुर्गासप्तशती के फल को )  सिद्ध करते हैं । 

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने ।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदम् शुभम् ॥ १२॥

सौभाग्यादि च = और सौभाग्य आदि 
यत्किञ्चिद् दृश्यते = जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है 
ललनाजने = स्त्रियों में 
तत्सर्वं = वह सब 
तत्प्रसादेन = उसके प्रसाद से है 
तेन= इस लिए 
 जाप्यम् = जप करना चाहिए 
इदम् = इस स्तोत्र का 
 शुभम् = कल्याण कारी 


और स्त्रियोंमे जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है वह सब उस देवी के प्रसाद से है । इसलिए इस कल्याणकारी स्तोत्र का जप करना चाहिए । 

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः ।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ॥ १३॥

शनै: तु=  और मंद स्वर में 
जप्यमाने = जाप करने पर 
अस्मिन् = इस 
स्तोत्रे = स्तोत्र का 
सम्पत्ति: =फल 
 उच्चकैः = उच्चे स्वर में 
भवत्येव = भवती एव = ऐसा ही होता है 
समग्रापि = सम्पूर्ण 
ततः = तब  , इसलिए 
प्रारभ्यमेव = आरम्भ ही 
तत् = वह , इसका 


मंद स्वर में जाप करने पर और उच्चे स्वर में जाप करने पर इस स्तोत्र का फल ऐसा ही होता है ( मंद स्वर में मंद,थोड़ा  फल और ऊँचे स्वर में उच्च सारा फल )।  इसलिए सम्पूर्ण फल के लिए इसका आरम्भ ही ऊँचे स्वर में करें । 

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्य सम्पदः ।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ॥॥ ॐ ॥॥ १४॥

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन = जिसके प्रसाद से  ऐश्वर्य 
सौभाग्यारोग्य सम्पदः = सौभाग्य आरोग्य संपत्ति 
शत्रुहानिः = शत्रु नाश 
परो मोक्षः = परम मोक्ष 
स्तूयते = स्तुति करे 
सा = उसकी 
 न किं जनैः = मनुष्य क्यों नहीं 


जिसके प्रसाद से ऐश्वर्य , सौभाग्य, आरोग्य, संपत्ति , शत्रु नाश, परम मोक्ष की सिद्धि होती है उसकी मनुष्य स्तुति क्यों न करे । 

         ॥ इति श्रीभगवत्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

॥ अथ अर्गलास्तोत्रम् ॥

ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुरृषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

ॐ नमश्चण्डिकायै ।

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ 

मार्कण्डेय  बोला । 

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २॥

जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आपको नमस्कार है । 

मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३॥

मधुकैटभ विद्रावि =मधु कैटभ को पराजित करने वाली 
विधातृ वरदे = ब्रह्मा को वरदान देने वाली 
नमः = नमस्कार है 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


मधु कैटभ को पराजित करने वाली ,  ब्रह्मा को वरदान देने वाली देवी  नमस्कार है आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४॥

महिषासुर निर्नाशि = महिषासुर का नाश करने वाली , 
भक्तानां सुखदे = भक्तों को सुख देने वाली 
नमः = नमस्कार है 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


महिषासुर का नाश करने वाली , भक्तों को सुख देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 



रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

रक्तबीज वधे= रक्तबीज का वध करने वाली 
देवि = देवी 
चण्डमुण्ड विनाशिनी = चण्ड मुंड का विनाश करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


रक्तबीज का वध करने वाली  , चण्ड मुंड का विनाश करने वाली देवी आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 



शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६

शुम्भस्य= शुम्भ का 
एव = और, भी  
निशुम्भस्य = निशुम्भ का 
धूम्राक्षस्य = धूम्राक्ष का 
च = और 
मर्दिनि=मर्दन करने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


शुम्भ का और निशुंभ और धूम्राक्ष का भी मर्दन करने वाली आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।


वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ॥ 

वन्दिता = वन्दनीय 
अङ्घ्रि युगे  = युगल चरणों वाली 
देवि = देवी 
सर्व सौभाग्य दायिनि = सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


युगल चरणों वाली, सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली वन्दनीय देवी  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥  ८ 

अचिन्त्यरूपचरिते = अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली 
सर्वशत्रुविनाशिनि= सब शत्रुओं का विनाश करने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली ,सब शत्रुओं का विनाश करने वाली देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

नतेभ्यः = नत होने वालों को  
सर्वदा = हमेशा 
भक्त्या = भक्ति से 
चण्डिके =चण्डिका देवी 
दुरितापहे = पापों को दूर करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


पापों को दूर करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्ति से नत होने वालों को आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १० ॥


स्तुवद्भ्यो = स्तुति करने वालों को 
भक्तिपूर्वं = भक्तिपूर्वक 
त्वां = तुम्हारी 
चण्डिके = चण्डिका 
व्याधिनाशिनि = रोगों का नाश करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


रोगों का नाश करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करने वालों को  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः  ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११

चण्डिके = चण्डिका 
सततं = हमेशा 
ये = जो 
तवं अर्चयन्तीह = तुम्हारी पूजा करते हैं 
भक्तितः = भक्तिपूर्वक 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे चण्डिका जो तुम्हारी हमेशा भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं उन्हें  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥

देहि = दो 
सौभाग्यम् = सौभाग्य 
आरोग्यं = निरोगता 
 देहि= दो 
 देवि = हे देवी 
परं सुखम् = परम सुख 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे देवी सौभग्य और आरोग्य दो , परम सुख दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।


विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥

विधेहि= प्रदान करो 
द्विषतां = द्वेष रखने वालों को 
नाशं = नाश 
विधेहि = प्रदान करो
बलमुच्चकैः = महान बल दो 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


द्वेष रखने वालों को नाश प्रदान करो , मुझे महान बल दो  ,  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 


विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमाम् श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४  ॥

विधेहि= प्रदान करो 
 देवि = हे देवी 
 कल्याणं = कल्याण 
विधेहि = प्रदान करो
 परमाम् = उत्तम 
 श्रियम् = संपत्ति 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे देवी कल्याण करो , उत्तम संपत्ति दो ,  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 


सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५ ॥

सुरासुर= सुर असुर 
शिरोरत्न = सिर के (मुकुट के ) रत्नों को 
निघृष्ट= घिसते हैं 
चरणे =चरणों  में 
अम्बिके = हे अम्बिका 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे अम्बिका सुर ,असुर आपके चरणों में  सिर के (मुकुट के ) रत्नों को घिसते हैं  ,  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥

विद्यावन्तं = विद्वान 
यशस्वन्तं = यशस्वी 
लक्ष्मीवन्तञ्च = लक्ष्मीवन्तं च = और लक्ष्मीवान 
मां कुरु = मुझे करो 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


मुझे विद्वान ,यशस्वी, लक्ष्मीवान करो ,  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥

प्रचण्डदैत्य दर्पघ्ने = प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली 
चण्डिके = चण्डिका 
प्रणताय = शरणागत , आत्म समपर्ण किये 
मे= मुझे 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली चण्डिका शरणागत आये मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥

चतुर्भुजे = चार भुजा धारणी 
चतुर्वक्त्र = चार मुख वाले ब्रह्मा से 
संस्तुते = स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि= = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


चार मुख वाले ब्रह्मा से स्तुत (प्रशंसनीय ) चार भुजा धारणी परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥

कृष्णेन संस्तुते = भगवान विष्णु से स्तुत (प्रशंसनीय )
देवि = देवी 
शश्वद्भक्त्या = निरंतर भक्तिपूर्वक 
सदा= हमेशा , नित्य 
अम्बिके = अम्बिका  
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


 भगवान विष्णु से नित्य निरंतर भक्तिपूर्वक स्तुत (प्रशंसनीय ) अम्बिका मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २० ॥

हिमाचल सुतानाथ संस्तुते = हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि   = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय ) परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१ ॥

इन्द्राणीपति = इंद्र द्वारा 
सद्भावपूजिते = सद्भाव से पूजित 
परमेश्वरि   = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


इंद्र द्वारा सद्भाव से पूजित परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।

देवि = देवी 
प्रचण्डदोर्दण्डदैत्य= प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के 
दर्प= दर्प का 
विनाशिनि = विनाश करने वाली

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )  
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के दर्प का विनाश करने वाली  देवी ,हमें  जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३  ॥

देवि = देवी 
भक्तजन उद्दाम दत्ता आनन्दोदये अम्बिके = भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )  
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका देवी ,हमें  जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ २४ ॥ 

पत्नीं = पत्नी  
मनोरमां = मनोहर 
देहि = दो 
मनोवृत्तानुसारिणीम् = मन की इच्छा के अनुसार चलने  वाली 
तारिणि = तारने वाली 
दुर्गसंसारसागरस्य = संसार रूपी कठिन सागर से 
 कुलोद्भवाम = उत्तम कुल में उत्पन्न 


मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर,  संसार रूपी कठिन सागर से तारने वाली उत्तम कुल में उत्पन्न  पत्नी दो । 


इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २५ ॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु = जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के 
महास्तोत्रं पठेन् नरः= महास्त्रोत्र को पढता है 
स = वह  
सप्तशती संख्या = सप्शती संख्या के 
 वरमाप्नोति= वरदान  पाता है 
सम्पदाम् = संपत्ति को 


जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के महास्त्रोत्र को पढता है वह  सप्शती संख्या के श्रेष्ठ वारों और संपत्ति को पाता है । 

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ॥

॥ अथ देवी कवचम् ॥

अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः , अनुष्टुप् छन्दः ,
चामुण्डा देवता , अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम् ,
दिग्बन्धदेवतास्तत्वम् , श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है । 

मार्कण्डेय उवाच ।
मार्कण्डेय बोला । 


ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १॥


यत् = जो 
गुह्यं =  गोपनीय 
परमं = अत्यंत 
लोके = संसार में 
सर्वरक्षाकरं = सब प्रकार से रक्षा करने वाला 
नृणाम् = मनुष्यों की 
यत् न = जो नहीं  
कस्यचित् आख्यातं = किसी को बताया गया
तत् मे = उसे मुझे  
ब्रूहि = बताइये 
पितामह = हे  पितामह 


हे  पितामह जो संसार में अत्यंत गोपनीय है , मनुष्यों की सब पकार से रक्षा करने वाला है , जो किसी को नहं बताया गया उस (साधन) को मुझे बताइये । 

ब्रह्मोवाच ।
अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् ।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २॥


अस्ति = है 
गुह्यतमं = गोपनीय से भी गोपनीय 
विप्र = ब्राह्मण 
सर्वभूतोपकारकम् = सभी प्राणियों का उपकार करने वाला 
देव्या: = देवी का 
तु = निश्चय  ही 
कवचं = कवच 
पुण्यं = पवित्र 
तच्छृणुष्व = तत् श्रुणुष्व = वह सुनो 
महामुने = हे महामुनि 


ब्राह्मण निश्चय ही देवी का पवित्र कवच गोपनीय से भी गोपनीय,  सभी प्राणियों का उपकार करने वाला है , हे महामुनि , वह सुनो । 

प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी ।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति  कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ ३॥

प्रथमं शैलपुत्रीति = पहली शैलपुत्री 
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी = दूसरी ब्रह्मचारिणी 
तृतीयं चन्द्रघण्टेति  = तीसरी चन्द्रघंटा 
कूष्माण्डेति चतुर्थकम् = चौथी कूष्माण्डा 


(देवी के नौ रूप हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं ) पहली शैलपुत्री, दूसरी ब्रह्मचारिणी ,  तीसरी चन्द्रघंटा , चौथी कूष्माण्डा 

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा ।
सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ॥ ४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥ ५॥


पञ्चमं स्कन्दमातेति = पांचवी सकंधमाता 
षष्ठं कात्यायनी तथा = इसी प्रकार छटी कात्यायनी 
सप्तमं कालरात्रिश्च = और सातवीं काल रात्रि 
महागौरीति चाष्टमम् = और आठवीं महा गौरी

नवमं सिद्धिदात्री = नौवीं  सिद्धिदात्री 
च = और 
नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः = नौ दुर्गायै प्रसिद्ध  हैं 
उक्तान्येतानि नामानि = उक्तानि एतानि नामानि =ये नाम कहे गए हैं 
ब्रह्मणैव= ब्रह्मा द्वारा ही 
 महात्मना = हे महात्मा 

पांचवी सकंधमाता , इसी प्रकार छटी कात्यायनी, और सातवीं काल रात्रि और आठवीं महा गौरी, और नौवीं  सिद्धिदात्री , (इस प्रकार ) नौ दुर्गायै प्रसिद्ध हैं , हे महात्मा ये नाम  ब्रह्मा द्वारा ही बताये गए हैं । 


अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६।


अग्निना =अग्नि में 
दह्यमाना: = जलता हुआ 
तु = और 
शत्रुमध्यगता रणे = युद्ध में शत्रुओं के बीच फंसा
विषमे = विषम 
दुर्गमे = संकट में पड़ा  
चैव = और इसी प्रकार 
भयार्ताः = भय से आतुर 
शरणं = शरण में 
गताः = जाता है 


अग्नि में जलता हुआ और युद्ध में शत्रुओं के बीच फंसा, विषम संकट में पड़ा और इसी प्रकार भय से आतुर (दुर्गा की ) शरण में जाता है 


न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे ।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ।। ७।।


न तेषां जायते = उनका नहीं होता 
किञ्चित् अशुभं = कुछ भी अशुभ 
रणसङ्कटे = युद्ध के संकट में 
आपदं = आपत्ति 
तस्य = उस पर 
 न= नहीं 
 च= और 
 पश्यन्ति = दिखाई देती 
 शोकदुःखभयम् = शौक दुःख भय
न हि = और न 


उनका कुछ भी अशुभ नहीं होता , और न युद्ध संकट में आपत्ति दिखाई देती है , और न दुःख शौक भय होता है । 

यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसि तान्न संशयः ॥ ८॥


यैस्तु= यै: तु= और जो 
भक्त्या = भक्ति पूर्वक 
स्मृता = स्मरण करते हैं 
नित्यं = रोज़ 
तेषां = उनका 
वृद्धिः =विकास 
प्रजायते = होता है 
ये = जो 
त्वां = तुम्हे 
स्मरन्ति = स्मरण करते हैं 
देवेशि = देवी 
रक्षसि = रक्षा करती हो 
तान्न संशयः= इसमें कोई संदेह नहीं 

और जो भक्तिपूर्वक रोज तुम्हारा स्मरण करते हैं उनका विकास होता है , हे देवी जो तुम्हे स्मरण करते हैं उनकी तुम रक्षा करती हो इसमें कोई संदेह नहीं । 

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥ ९॥

प्रेतसंस्था = प्रेत पर आरूढ़ है 
तु = और 
चामुण्डा = चामुण्डा देवी 
वाराही = वाराही 
महिषासना ।= भैंसे पर सवार है 
ऐन्द्री = इंद्री 
गजसमारूढा = हाथी पर बैठी है 
वैष्णवी = वैष्णवी
गरुडासना = गुरुङ पर सवार है 


और चामुण्डा देवी प्रेत पर आरूढ़ है , वाराही भैंसे पर सवार है , ऐन्द्री हाथी पर बैठी है , वैष्णवी गुरुङ पर सवार हैं । 

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ।

लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ।।१०।।

माहेश्वरी = माहेश्वरी 
वृषारूढा = वृष पर आरूढ़ 
कौमारी = कौमारी 
शिखिवाहना = मोर के वाहन पर 
लक्ष्मीः = लक्ष्मी 
पद्मासना = कमल के आसन पर 
देवी = देवी 
पद्महस्ता = कमल हाथ में लिए 
हरिप्रिया = विष्णु प्रिया 


माहेश्वरी वृष पर आरूढ़ , कौमारी मोर के वाहन पर , विष्णुप्रिया देवी लक्ष्मी कमल हाथ में लिए कमल के आसन पर बैठी हैं । 

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ।
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ।।११।।

श्वेतरूपधरा = श्वेत रूप धारे 
देवि = देवी 
ईश्वरी = ईश्वरी 
वृषवाहना = वृषभ पर सवार है 
ब्राह्मी = ब्राह्मी 
हंससमारूढा = हंस पर आरूढ़ है 
सर्वाभरणभूषिता= सभी आभूषणों से सुसज्ज्त 


देवी ईश्वरी श्वेत रूप धारे वृषभ पर सवार है , ब्राह्मी सभी आभूषणों से सुसज्जित हंस पर आरूढ़ है । 

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ।।१२।।

इत्येता = इति एता = इस प्रकार ये 
मातरः = माताएं 
सर्वाः = सभी 
सर्वयोगसमन्विताः सभी योग शक्तियों से संपन्न 
नानाभरणशोभाढ्या = अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित 
नानारत्नोपशोभिताः= अनेक प्रकार के रत्नों से शोभायमान हैं 


इस प्रकार ये सभी माताएं सभी योग शक्तियों से संपन्न, अनेक प्रकार के आभूषणों से सुशोभित , अनेक प्रकार के रत्नों से शोभायमान हैं । 

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ।।१३।।
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ।।१४।।

दृश्यन्ते = दिखाई देती हैं 
रथमारूढा = रथ पर सवार 
देव्यः = देवियाँ 
क्रोधसमाकुलाः क्रोध से युक्त 
शङ्खं = शंख 
चक्रं = चक्र 
गदां = गदा 
शक्तिं = शक्ति 
हलं च = और हल 
मुसल = मूसल 
युधम् = शस्त्र

खेटकं = खेटक
तोमरं = तोमर 
चैव = और इसी प्रकार 
परशुं = परशु 
पाशमेव = पाश 
च = और 
कुन्तायुधं = कुंत का हथियार 
त्रिशूलं च = और त्रिशूल 
शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्= = उत्तम शस्त्र शार्ङ्ग


देवियाँ क्रोध से युक्त शंख , चक्र गदा शक्ति , हल और मूसल के शस्त्र , खेटक, तोमर और इसी प्रकार परशु , पाश और कुंत का हथियार और उत्तम शस्त्र शार्ङ्ग लिए रथ पर सवार दिखाई देती हैं ।  

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ।।१५।।

दैत्यानां देहनाशाय = दैत्यों के शरीर के  नाश 

भक्तानाम अभयाय च = और भक्तों के अभय 
धारयन्त्यायुधानीत्थं = धारयन्ति आयुधान् इथं = इन हथियारों को धारण किया है 
देवानां च हिताय वै = और इसी प्रकार देवताओं के हित के लिए 


दैत्यों के शरीर के  नाश और भक्तों के अभय और इसी प्रकार देवताओं के हित के लिए ( देवियों ने )  इन हथियारों को धारण किया है । 

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ।।१६।।

नमस्तेऽस्तु = तुम्हे नमस्कार है 
महारौद्रे = महा रौद्र 
महाघोरपराक्रमे= महान पराकम
महाबले = महाबली 
महोत्साहे = महा उत्साही 

महाभयविनाशिनि= महान भय का नाश करने वाली 

महा रौद्र, महान पराकम, महाबली,महा उत्साही ,महान भय का नाश करने वाली देवी तुम्हें नमस्कार है। 

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।।१७।।

त्राहि मां देवि = हे देवी मेरी रक्षा करो 
दुष्प्रेक्ष्ये = जिसकी और देखना कठिन हो 
शत्रूणां = शत्रुओं में 
भयवर्धिनि = भय बढ़ाने वाली 
प्राच्यां रक्षतु = पूर्व दिशा में रक्षा करे 
माम= मेरी 
एन्द्री = एन्द्री
आग्नेय्याम अग्निदेवता= अग्नि कोण में अग्नि शक्ति 


शत्रुओं में भय बढ़ाने वाली हे देवी तुम्हारी और देखना भी कठिन है , मेरी रक्षा करो । पूर्व दिशा में एन्द्री,  अग्नि कोण में अग्नि शक्ति मेरी रक्षा करे । 

दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी ।।१८।।

दक्षिणेऽवतु = दक्षिण दिशा में 
वाराही = वाराही 
नैऋत्यां = नैऋत्य कोण में 
खड्गधारिणी = खड्गधारिणी
प्रतीच्यां = पश्चिम में 
वारुणी = वारुणी 
रक्षेत्= रक्षा करे 

वायव्यां मृगवाहिनी = वायव्य कोण में मृगवाहिनी

 दक्षिण दिशा में वाराही ,नैऋत्य कोण में खड्गधारिणी, पश्चिम में वारुणी वायव्य कोण में मृगवाहिनी रक्षा करे । 

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा ।।१९।।



उदीच्यां = उत्तर दिशा में 
पातु कौबेरी = कौबेरी रक्षा करे 
ईशान्यां शूलधारिणी = ईशान में शूलधारणी 
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी = ऊपर से ब्रह्माणी
मे = मेरी 
रक्षेत् = रक्षा करे
धस्तात् = नीचे से 
वैष्णवी = वैष्णवी देवी 

तथा= इसी प्रकार 

उत्तर दिशा में कौबेरी रक्षा करे ईशान में शूलधारणी, ऊपर से ब्रह्माणी,इसी प्रकार नीचे से वैष्णवी देवी मेरी रक्षा करे । 

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ।
जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ।।२०।।
एवं दश दिशो = इसी प्रकार दसो दिशाओं से 
रक्षेत् चामुण्डा = चामुण्डा रक्षा करे 
शववाहना = शव के वाहन वाली 
जया माम अग्रतः = जया मेरी आगे से 
पातु = रक्षा करे 
विजया पातु पृष्ठतः = विजया पीछे से रक्षा करे 


इसी प्रकार शव के वाहन वाली चामुण्डा दसो दिशाओं में रक्षा करे । जया मेरी आगे से रक्षा करे, विजया पीछे से रक्षा करे । 


अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ।
शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ।।२१।।

अजिता वामपार्श्वे= वाम भाग में अजीता 
तु = और , अब 
दक्षिणे च अपराजिता=  और दक्षिण में अपराजिता 
शिखाम् उद्योतिनी = उद्योतिनी शिखा की 
रक्षेत् उमा = उमा रक्षा करे  
मूर्ध्नि = मस्तक पर 
व्यवस्थिता = विराजमान हो कर 

अजीता वाम भाग की , और दक्षिण में अपराजिता, उद्योतिनी शिखा की , और उमा मस्तक पर विराजमान हो कर रक्षा करे ।

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा तु नासिके ।।२२।।

मालाधरी ललाटे = मालाधारी ललाट की 
 च = और 
भ्रुवौ = भौहों की 
रक्षेत्= रक्षा करे 
यशस्विनी = यशस्विनी 
त्रिनेत्रा च भ्रुवो: मध्ये= और भौहों के मध्य की त्रिनेत्रा
यमघण्टा तु नासिके =और  नासिका की यमघण्टा


 मालाधारी ललाट की और यशस्विनी भौहों की और भौहों के मध्य की त्रिनेत्रा और नासिका की यमघण्टा  रक्षा करे । 

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी ।
कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शाङ्करी ।। २३।।

शङ्खिनी चक्षुषो: मध्ये = शङ्खिनी आँखों के बीच की 
श्रोत्रयो:  द्वारवासिनी= द्वारवासिनी कानों की 
कपोलौ कालिका = कालिका गालों की 
रक्षेत् = रक्षा करे 
कर्णमूले तु शाङ्करी = और शाङ्करी कानों के मूल भाग की 


शङ्खिनी आँखों के बीच की ,द्वारवासिनी कानों की , कालिका गालों की और शाङ्करी कानों के मूल भाग की रक्षा करे । 

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका ।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ।। २४।।

नासिकायां सुगन्धा = सुगन्धा  नाक की 
च = और 
उत्तरोष्टे च चर्चिका = ऊपर के  होठ की चर्चिका 
अधरे च अमृतकला = और नीचे के होंठ की अमृतकला 
जिह्वायां च सरस्वती = और जीभ की  सरस्वती रक्षा करे 


नाक की सुगंधा और ऊपर के  होठ की चर्चिका  और नीचे के होंठ की अमृतकला और जीभ की  सरस्वती रक्षा करे । 

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका ।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ।। २५।।

दन्तान् रक्षतु कौमारी= दांतों की रक्षा कौमारी 
कण्ठदेशे तु चण्डिका= और चण्डिका कण्ठप्रदेश की 
घण्टिकां चित्रघण्टा च = और  चित्रघण्टा घाँटी की 
महामाया च तालुके = और महामाया तालु की 


दांतों की कौमारी और चण्डिका कण्ठप्रदेश की और चित्रघण्टा घाँटी की  और महामाया तालु की रक्षा करे । 

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला ।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ।। २६।।

कामाक्षी चिबुकं = कामाक्षी ठोडी की 
रक्षेत् = रक्षा करे 
 वाचं मे सर्वमङ्गला = सर्वमङ्गला मेरी वाणी की 
ग्रीवायां भद्रकाली = गर्दन की भद्रकाली  
च पृष्ठवंशे धनुर्धरी= और धनुर्धरी मेरुदण्ड की 


कामाक्षी ठोडी की , सर्वमङ्गला मेरी वाणी की , गर्दन की भद्रकाली  और धनुर्धरी मेरुदण्ड की रक्षा करे । 

नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी ।
स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ।। २७।।


नीलग्रीवा बहिः कण्ठे = नीलग्रीवा कंठ के बाहरी भाग की 
नलिकां नलकूबरी = नलकूबरी कंठ की नली की 
स्कन्धयोः खड्गिनी = खड्गिनी दोनों कन्धों की 
रक्षेत् = रक्षा करे  
बाहू मे वज्रधारिणी = वज्रधारिणी मेरी बाहों की 


 नीलग्रीवा कंठ के बाहरी भाग की, नलकूबरी कंठ की नली की ,  खड्गिनी दोनों कन्धों की , वज्रधारिणी मेरी बाहों की  रक्षा करे  ।

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च ।
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ।। २८।।

हस्तयो: दण्डिनी = दण्डिनी हाथों की 
रक्षेत् = रक्षा करे
अम्बिका च अङ्गुलीषु= और  अम्बिका उँगलियों की 
 च = और 
नखान् शूलेश्वरी रक्षेत् = नाखूनों की शूलेश्वरी रक्षा करे 
कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी= कुलेश्वरी पेट की रक्षा करे 


दण्डिनी हाथों की रक्षा करे और  अम्बिका उँगलियों की और शूलेश्वरी नाखूनों की रक्षा करे और कुलेश्वरी पेट की रक्षा करे । 


स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी ।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ।। २९।।

स्तनौ महादेवी = स्तनों की महादेवी 
रक्षेत् = रक्षा करे
मनःशोकविनाशिनी = मन की शोकविनाशिनी 
हृदये ललिता देवी = हृदय की ललित देवी 
उदरे शूलधारिणी = उदर की शूलधारणी


स्तनों की महादेवी , मन की शोकविनाशिनी,  हृदय की ललित देवी , हृदय की ललित देवी , उदर की शूलधारणी  रक्षा करे । 

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा ।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ।। ३०।।

नाभौ च कामिनी = नाभी की कामिनी 
रक्षेद् = रक्षा करे 
गुह्यं गुह्येश्वरी तथा = और गुह्य भाग की गुह्येश्वरी
पूतना कामिका मेढ्रं = पूतना और कामिका लिंग की 
गुदे महिषवाहिनी= महिषवाहिनी गुदा की 


नाभी की कामिनी  और गुह्य भाग की गुह्येश्वरी,  पूतना और कामिका लिंग की ,  महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे । 

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी ।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१।।

कट्यां भगवती = भगवती कमर की 
रक्षेत् = रक्षा करे
जानुनी विन्ध्यवासिनी= विन्ध्यवासिनी घुटनों की 
जङ्घे महाबला = महाबला जंघाओं की 
रक्षेत् = रक्षा करे
सर्वकामप्रदायिनी= सभी कामनाओं को देने वाली 


भगवती कमर की , विन्ध्यवासिनी घुटनों की  रक्षा करे, सभी कामनाओं को देने वाली महाबला जंघाओं की रक्षा करे । 

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२।।

गुल्फयो: नारसिंही च = और टकनों की नारसिंही
पादपृष्ठे तु तैजसी = और पैरों के पृष्ठ भाग की तैजसी
पादाङ्गुलीषु श्री = श्री देवी  पैरों की उँगलियों की 
रक्षेत् = रक्षा करे
पादाधस्तलवासिनी = तलवासिनी तलवों की 


और टकनों की नारसिंही, और पैरों के पृष्ठ भाग की तैजसी , श्री देवी  पैरों की उँगलियों की ,  तलवासिनी तलवों की रक्षा करे ।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी ।
रोमकूपेषु कौमारी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३।।

नखान् दंष्ट्राकराली च = और दंष्ट्राकराली नखों की 
केशां च एव उर्ध्वकेशिनी = और ऐसे ही उर्ध्वकेशिनी बालों की 
रोमकूपेषु कौमारी = कौमारी रोमकूपों की 
त्वचं वागीश्वरी तथा = और वागीश्वरी त्वचा की 


और दंष्ट्राकराली नखों की , और ऐसे ही उर्ध्वकेशिनी बालों की , कौमारी रोमकूपों की और वागीश्वरी त्वचा की रक्षा करे । 


रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती ।
अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ।। ३४।।

रक्त मज्जा वसा मांसान्य अस्थि मेदांसि = रक्त , मज्जा , वसा, मांस , हड्डी , मेद की 
पार्वती = पार्वती 
अन्त्राणि कालरात्रिश्व= आँतों की कालरात्रि 
 पित्तं च मुकुटेश्वरी = और पित्त की मुक्तेश्वरी


रक्त , मज्जा , वसा, मांस , हड्डी , मेद की पार्वती , आँतों की कालरात्रि  और पित्त की मुक्तेश्वरी रक्षा करे । 

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा ।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ।। ३५।।

पद्मावती पद्मकोशे = पद्मकोश की पद्मावती
कफे चूडामणि: तथा = और कफ की चूडामणि
ज्वालामुखी = ज्वालामुखी 
नखज्वालाम - नख के तेज की 
अभेद्या = अभेद्या देवी 
सर्वसन्धिषु = सभी जोड़ों की 


पद्मकोश की पद्मावती  और कफ की चूडामणि,  नख के तेज की  ज्वालामुखी, सभी जोड़ों की अभेद्या देवी रक्षा करें । 

शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा ।
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ।। ३६।।

शुक्रं ब्रह्माणी मे =  ब्रह्माणी मेरे वीर्य की 
रक्षेत् = रक्षा करे
छायां छत्रेश्वरी तथा = और छत्रेश्वरी छाया की 
अहङ्कारं मनो बुद्धिं = अहंकार , मन और बुद्धि की 
रक्षेत् = रक्षा करे
मे= मेरे 
 धर्मधारिणी=  धर्मधारिणी


ब्रह्माणी मेरे वीर्य की और छत्रेश्वरी छाया की रक्षा करे, धर्मधारिणी मेरे अहंकार , मन और बुद्धि की रक्षा करे । 

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ।। ३७।।

प्राण अपानौ तथा व्यानम् = प्राण , अपान ,  व्यान 
उदानं च समानकम्= उदान और समान वायु की 
वज्रहस्ता = वज्रहस्ता
 च मे = और मेरी 
रक्षेत्= रक्षा करे 
 प्राणान् कल्याणशोभना = कल्याणशोभना प्राणों की 


 वज्रहस्ता प्राण , अपान , व्यान , उदान और समान वायु की और  कल्याणशोभना मेरे प्राणों की रक्षा करे । 

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी ।
सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ।। ३८।।

रसे रूपे च  = रस रूप 
गन्धे च शब्दे = गंध और शब्द की 
स्पर्शे च योगिनी = और स्पर्श की योगिनी 
सत्त्वं रजस्तमश्व एव = सत्व , रज और तम गुणों की 
रक्षेत्= रक्षा करे 
नारायणी = नारायणी 
सदा = हमेशा 


रस, रूप , गंध और शब्द  और स्पर्श की योगिनी देवी , सत्व , रज और तम गुणों की नारायणी हमेशा रक्षा करे । 

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी ।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्या च चक्रिणी ।। ३९।।

आयू रक्षतु वाराही = वाराही आयु की रक्षा करे 
धर्मं रक्षतु वैष्णवी = धर्म की वैष्णवी रक्षा करे 
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च = यश , कीर्ति , लक्ष्मी और 
 धनं विद्या च चक्रिणी= धन व विद्या की चक्रिणी देवी 


वाराही आयु की रक्षा करे, धर्म की वैष्णवी रक्षा करे ,  यश , कीर्ति , लक्ष्मी और  धन व विद्या की चक्रिणी देवी रक्षा करे । 

गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके ।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ।। ४०।।

गोत्रमिन्द्राणी मे = मेरे गोत्र की इन्द्राणी 
रक्षेत्= रक्षा करे 
पशून्मे रक्ष चण्डिके= पशुओं की चण्डिका रक्षा करे 
पुत्रान् = पुत्रों की 
रक्षेत्= रक्षा करे 
महालक्ष्मी: = महालक्ष्मी 

भार्यां रक्षतु भैरवी = पत्नी की भैरवी रक्षा करे 

 मेरे गोत्र की इन्द्राणी रक्षा करे ,पशुओं की चण्डिका रक्षा करे , पुत्रों की महालक्ष्मी  रक्षा करे ,पत्नी की भैरवी रक्षा करे  । 

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।।४१।।

पन्थानं सुपथा = सुपथा मेरे पथ की 
रक्षेत्= रक्षा करे 
मार्गं क्षेमङ्करी तथा = और मार्ग की क्षेमकरी 
राजद्वारे महालक्ष्मी:= राजा के दरबार में महालक्ष्मी 
विजया सर्वतः स्थिता = सब जगह स्थित विजया चारों और से 


सुपथा मेरे पथ की और मार्ग की क्षेमकरी ,  राजा के दरबार में महालक्ष्मी,  सब जगह स्थित विजया चारों और से रक्षा करे । 


रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ।।४२।।

रक्षाहीनं तु यत् स्थानं = और जो स्थान रक्षा रहित हैं 
वर्जितं कवचेन तु = और कवच में नहीं कहे गए हैं 
तत्सर्वं रक्ष मे देवि = उन सभी स्थानों पर मेरी रक्षा करो , हे देवी 
 जयन्ती पापनाशिनी= विजयशालिनी , पापनाशिनी 


और जो स्थान रक्षा रहित हैं और कवच में नहीं कहे गए हैं,  हे विजयशालिनी , पापनाशिनी  देवी उन सभी स्थानों पर मेरी रक्षा करो । 

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ।।४३।।

पदमेकं न गच्छेत् तु= और एक कदम भी न जाए 
यदीच्छेच्छुभमात्मनः = यत् इच्छेत् शुभम् आत्मनः = जिसे अपने शुभ की इच्छा है 
कवचेनावृतो= कवच से आवृत हो 
नित्यं = रोज़ 
यत्र यत्रैव= जहां जहां 
गच्छति = जाते हैं 



जिसे अपने शुभ की इच्छा है( कवच बिना) एक कदम भी न जाएँ , जो रोज़ कवच से आवृत हो जहां जहां जाते हैं 

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकामिकः ।

तत्र तत्र = वहां वहां 
अर्थलाभश्व = अर्थ लाभ 

विजयः सार्वकामिकः= सब कामनाओं में विजय प्राप्त करते हैं 

वहां वहां  अर्थ लाभ व् सब कामनाओं में विजय प्राप्त करते हैं । 

यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
यं यं= जिस जिस 
 चिन्तयते कामं = अभीष्ट का चिंतन करते हैं 
 तं तं = उस उस को 
प्राप्नोति निश्चितम्= निश्चय ही प्राप्त करते हैं 


 जिस जिस अभीष्ट का चिंतन करते हैं उस उस को निश्चय ही प्राप्त करते हैं ।

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ।।४४।।

परमैश्वर्यम अतुलं = अतुलनीय परम ऐश्वर्य 
 प्राप्स्यते= प्राप्त करते हैं 
 भूतले = पृथ्वी पर 
 पुमान्= मनुष्य 


पृथ्वी पर मनुष्य अतुलनीय परम ऐश्वर्य प्राप्त करता है । 

निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ।। ४५।।

निर्भयो जायते = निर्भीक हो जाता है 
 मर्त्यः = मनुष्य 
सङ्ग्रामेष्व अपराजितः = युद्ध में पराजय नहीं होती 
त्रैलोक्ये तु= और त्रिलोक में 
 भवेत्पूज्यः= पूजनीय होता है 
 कवचेनावृतः पुमान् = कवच से सुरक्षित मनुष्य 


कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भीक हो जाता है और त्रिलोक में पूजनीय होता है । 

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ।। ४६।।

इदं तु देव्याः कवचं = और देवी का यह कवच 
देवानामपि = देवताओं के लिए भी 
दुर्लभम् = दुर्लभ है 
यः पठेत्= जो पढता है 
 प्रयतो =नियम से 
 नित्यं त्रिसन्ध्यं = प्रतिदिन तीनों संध्याओं में 
श्रद्धयान्वितः = श्रद्धापूर्वक 


और देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है , जो नियम से प्रतिदिन तीनों संध्याओं में श्रद्धापूर्वक इसे पढता है । 

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः ।
जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ।। ४७।।

दैवी कला भवेत्त तस्य = उसे देवी कला प्राप्त होती है 
त्रैलोक्येष्वपराजितः = तीनों लोकों में पराजित नहीं होता 
जीवेद्वर्षशतं = सौ वर्षों तक जीता है 
साग्रम अपमृत्यु विवर्जितः= इतना ही नहीं अपमृत्यु(अकाल मृत्यु ) से रहित हो 


उसे देवी कला प्राप्त होती है ,  तीनों लोकों में पराजित नहीं होता, इतना ही नहीं अपमृत्यु(अकाल मृत्यु ) से रहित हो सौ वर्षों तक जीता है । 

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः ।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ।। ४८।।

नश्यन्ति= नष्ट हो जाते हैं 
 व्याधयः = रोग 
सर्वे लूताविस्फोटकादयः= मकरी  चेचक आदि सभी 
स्थावरं= स्थिर चीज़ों के जैसे भांग अफीम धतूरे आदि के 
 जङ्गमं= चलने वाली जीवित जैसे सांप , बिच्छु का 
 चैव = और इसी प्रकार 
कृत्रिमं चैव= अहिफेन और तेल को मिलाने से बनाने वाले 
 यद्विषम् = जो जहर हैं 


मकरी  चेचक आदि सभी रोग , स्थिर चीज़ों के जैसे भांग अफीम धतूरे आदि के और इसी प्रकार चलने वाली जीवित जैसे सांप , बिच्छु का और ऐसे ही अहिफेन और तेल को मिलाने से बनाने वाले जो जहर हैं नष्ट हो जाते हैं । 

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले ।
भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ।। ४९।।


अभिचाराणि = अभिचारण (मारन मोहन आदि ) के 
सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि = सभी मन्त्र 
भूतले = पृथ्वी पर 
भूचराः=पृथ्वी पर  विचरने वाले ग्रामदेवता 
 खेचरा= आकाश में विचरने वाले देवविशेष 
च एव = और ऐसे ही 
 कुलजा = जल में प्रकट होने वाले गण  
उपदेशिकाः= उपदेश से सिद्ध होने वाले देव 


पृथ्वी पर अभिचारण (मारन मोहन आदि ) के सभी मन्त्र , पृथ्वी पर  विचरने वाले ग्रामदेवता , आकाश में विचरने वाले देवविशेष  और ऐसे ही जल में प्रकट होने वाले गण  , उपदेश से सिद्ध होने वाले देव 

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा ।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ।। ५०।।

सहजा = जनम के साथ प्रकट होने वाले देवता 
कुलजा = कुल देवता  
माला= कंठमाला 
 डाकिनी शाकिनी तथा = डाकिनी शाकिनी और 
अन्तरिक्षचरा= अंतरिक्ष में घूमने वाले  
 घोरा = भयंकर 
डाकिन्यश्च = डाकनियाँ 

महाबलाः= महाबली 

जनम के साथ प्रकट होने वाले देवता , कुल देवता, कंठमाला , डाकिनी शाकिनी और अंतरिक्ष में घूमने वाले भयंकर महाबली डाकनियाँ 

गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः ।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ।। ५१।।

गृहभूतपिशाचाश्च = गृह , भूत , पिशाच और 
यक्षगन्धर्वराक्षसाः= यक्ष , गन्धर्व , राक्षस 
ब्रह्मराक्षसवेतालाः = ब्रह्मराक्षस, बेताल 
कूष्माण्डा = कूष्माण्ड, 
भैरवादयः= भैरव आदि 

गृह , भूत , पिशाच और यक्ष , गन्धर्व , राक्षस ,ब्रह्मराक्षस, बेताल ,  कूष्माण्ड,भैरव आदि 

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे ह्रदि संस्थिते ।

नश्यन्ति = भाग जाते हैं 
दर्शनात् = देख कर ही 
तस्य = उसको 
 कवचे ह्रदि संस्थिते= हृदय में कवच धारण करने पर 


हृदय में कवच धारण करने पर उस मनुष्य को देख कर ही भाग जाते हैं । 


मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिकरं परम् ।। ५२।।

मानोन्नति:= मान की वृद्धि 
भवेत् = होती है 
राज्ञा:   =राजा से  
ते= वे ,
तेजोवृद्धिकरं परम् = तेज की वृद्धि करने वाला , उत्तम है 



और राजा से उनके मान की वृद्धि होती है । ( यह कवच )  तेज की वृद्धि करने वाला , उत्तम है । 

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभुतले ।
जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।।५३।।

यशसा = यश 
 वर्धते = वृद्धि को प्राप्त करता है 
 सोऽपि = वह भी 
कीर्तिमण्डित = कीर्ति से सुशोभित 
भुतले = पृथ्वी पर 

जपेत् = जप करता है 
सप्तशतीं = सप्तशती 
चण्डीं = चंडी का 
कृत्वा = करके 
तु = और 
कवचं = कवच का 

पुरा = पहले 


पृथ्वी पर  कीर्ति से सुशोभित वह भी यश और वृद्धि को प्राप्त करता है । जो पहले कवच का पाठ करके सप्शती चंडी का जप करता है  


यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ।। ५४।।

यावत् = जब तक 
भूमण्डलं = पृथ्वी 
धत्ते = टिकी है 
सशैलवनकाननम् = पर्वत, वन , कानन के साथ 
तावत् = तब तक 
तिष्ठति = ठहरती है 
मेदिन्यां= पृथ्वी पर 
 सन्ततिः = संतान परम्परा 
पुत्रपौत्रिकी = पुत्र पौत्र आदि 


जब तक पृथ्वी पर्वत, वन , कानन के साथ टिकी है तब तक उसकी पुत्र पौत्र आदि संतान परम्परा रहती है । 


देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् ।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५।।

देहान्ते = देह का अंत होने पर 
परमं स्थानं = उत्तम स्थान को 
सुरैरपि सुदुर्लभम् = देवताओं को भी दुर्लभ 
प्राप्नोति = प्राप्त करता है 
पुरुषो= पुरुष 
 नित्यं = नित्य 
महामायाप्रसादतः = महामाया के प्रसाद से 


महामाया के प्रसाद से वह पुरुष  देवताओं को भी दुर्लभ नित्य उत्तम स्थान को प्राप्त करता है । 

लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ।। ५६।।

लभते परमं स्थानं = उत्तम स्थान प्राप्त करके 
शिवेन समतां = शिव के समान
व्रजेत् = होता  है 


 उत्तम स्थान प्राप्त करके शिव के समान  होता  है । 

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं
देवीकवचं समाप्तम् ॥

त्रयोदशोऽध्यायः


ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे।।

बालार्क मण्डल आभासां = उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली 
चतुर्बाहुं = चार भुजाओं वाली 
त्रिलोचनाम्= तीन नेत्रों वाली 
पाशाङ्कुशवराभीती: धारयन्तीं = पाश, अंकुश , वर और अभय  मुद्रा धारण करने वाली 

शिवां भजे = शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ । 

उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली चार भुजाओं वाली, तीन नेत्रों वाली ,पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली, शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ । 

ॐ ऋषिरुवाच ॥ १॥

ऋषि बोले । 

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ।
एवम्प्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत् ॥ २॥

एतत्ते = एतत ते = इस प्रकार आपको 
कथितं = वर्णन कर दिया 
भूप = राज़ा
देवीमाहात्म्यमुत्तमम् = देवी के उत्तम माहात्म्य का 
एवम्प्रभावा = ऐसा प्रभाव है 
सा देवी = उस  देवी 
ययेदं यत इदं = जो इस 
धार्यते = धारण करती  है 
जगत् = जगत को 


हे राजा इस प्रकार आपको देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन कर दिया है , उस देवी का ऐसा प्रभाव है जो इस जगत को दजारां करती है । 

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया ।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः ॥ ३॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे ।

विद्या = ज्ञान 
तथैव = इस प्रकार ही 
क्रियते = उत्पन्न करती है 
भगवद्विष्णुमायया = भगवान विष्णु की माया स्वरूपा   
तया = उसके द्वारा 
त्वम्= तुम 
एष= यह 
वैश्यश्च वैश्यः च और वैश्य 
तथैवान्ये =तथा एव अन्ये 
विवेकिनः= बुद्धिमान 
मोह्यन्ते= मोहित हुए 
 मोहिता: मोहित होते हैं 
 मोहम् = मोह में , मोहित 
एष्यन्ति = आएंगे , होते रहेंगे 
 च अपरे = और दूसरे भी 


भगवान विष्णु की माया स्वरूपा ज्ञान उत्पन्न करती है, इस प्रकार ही उसके द्वारा तुम और यह वैश्य  और अन्य बुद्धिमान मोहित हुए और मोहित होते हैं । और दूसरे भी मोहित होते रहेंगे ।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ॥ ४॥

ताम = उस की 
उपैहि = जाओ , पहुँचो 
महाराज = हे महाराज 
शरणं = शरण में 
परमेश्वरीम् = परमेश्वरी की 


हे महाराज उस परमेश्वरी की शरण में जाओ । 

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ॥ ५॥

आराधिता = आराधना करने पर 
सैव= सा एव = वे ही 
नृणां = मनुष्यों को 
भोगस्वर्गापवर्गदा = भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं 


आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ ६॥

मार्कण्डे  बोले । 

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः ॥ ७॥

इति = इस प्रकार 
तस्य = उसके 
वचः = वचनों को 
श्रुत्वा = सुनकर 
सुरथः = सुरथ
स नराधिपः= वह राजा 


इस प्रकार उसके वचनों को सुनकर वह राजा सुरथ

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् ।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च ॥ ८॥

प्रणिपत्य = प्रणाम कर के 
महाभागं = महाभाग
तमृषिं = उस ऋषिको 
संशितव्रतम् = दृढ़ता से  व्रत का पालन करने वाले 
निर्विण्णो = दुखी , निराश 
अतिममत्वेन = अति ममता 
राज्यापहरणेन = राज्य के अपहरण से 
च = और 


दृढ़ता से  व्रत का पालन करने वाले उस ऋषि महाभाग को  प्रणाम कर के अति ममता और राज्य के अपहरण से दुखी 

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने ।
सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः  ॥ ९॥

जगाम = गए 
सद्य= उसी वक़्त 
तपसे = तपस्या के लिए 
स च वैश्यो =  वह और वैश्य 
महामुने = महामुनि 
सन्दर्शनार्थम = दर्शनों के लिए 
अम्बाया = अम्बा के 
नदीपुलिन = नदी के किनारे 
संस्थितः = स्थित हो 


हे महानूनी वह और वैश्य तपस्या के लिए नदी के किनारे स्थित हुए । 

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् ।
तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ॥ १०॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।

स च वैश्य = उसने और वैश्य ने 
तप: = तपस्या 
तेपे = तपी , की 
देवीसूक्तं = देवी सूक्त का 
परं = अत्यधिक 
जपन् = जप कर के 
तौ = वे दोनों 
तस्मिन् = उस 
पुलिने = पल पर 
देव्याः = देवी की 
कृत्वा = बना कर 
मूर्तिं = मूर्ति 
महीमयीम् = मिट्टी की 

अर्हणां = पूजन  
चक्रतु:= किया 
तस्याः = उसका 

पुष्प धूप अग्नि तर्पणैः = फूल, धूप, हवन और तर्पण से 


उसने और वैश्य ने देवीसूक्त का परम जप कर तपस्या की । उन दोनों ने नदी के पल पर देवी की मिटटी की मूर्ति बना कर फूल, धूप, हवन और तर्पण से उसका पूजन किया । 

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ ॥ ११॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् ।

निराहारौ = बिना भोजन 
यताहारौ  = संयत  भोजन 
तन्मनस्कौ = एकाग्र मन से 
समाहितौ = युक्त हो कर 

ददतु: = दी 
तौ = उन दोनों ने  
बलिं = बलि 
चैव = और ऐसे ही 
निजगात्र= अपने शरीर का  
असृग्= खून 
उक्षितम्= छिड़क कर 


उन दोनों ने एकाग्र मन से युक्त हो कर बिना भोजन , अल्प भोजन कर और ऐसे ही अपने शरीर का खून छिड़क कर बलि दी । 


एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ॥ १२॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥ १३॥

एवं = इस प्रकार
समाराधयत: = आराधना की 
त्रिभि:= तीन 
वर्षै:= वर्षों तक 
यतात्मनोः = मन को संयत करके 

परितुष्टा = संतुष्ट हो 
 जगद्धात्री = जगत को धारण करने वाली 
प्रत्यक्षं = प्रकट हो 
प्राह = कहा 
चण्डिका= चण्डिका ने 


इस प्रकार एकाग्र मन से तीन वर्षों तक आराधना करने पर संतुष्ट हो जगत को धारण करने वाली चण्डिका ने कहा । 

देव्युवाच ॥ १४॥
देवी बोलीं । 

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन ।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामिते ॥ १५॥

यत्प्रार्थ्यते = जिसके लिए प्रार्थना की है 
त्वया = तुम्हारे द्वारा  
भूप = राजा 
त्वया च कुलनन्दन = और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा  
 मत्= मेरे द्वारा
तत्= वह 
प्राप्यतां = प्राप्त करोगे 
सर्वं = सब 
परितुष्टा = संतुष्ट हुई 
ददामि = प्रदान करुँगी 
ते = और 


हे राजा तुम्हारे द्वारा और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा जिसके लिए प्रार्थना की गयी है वह मेरे द्वारा प्राप्त करोगे और संतुष्ट हुई मैं सब प्रदान करुँगी । 


मार्कण्डेय उवाच ॥ १६॥
मार्कण्डेय बोले । 


ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि ।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ १७॥

ततो = तब 
वव्रे = वरदान माँगा , प्रार्थना की 
नृपो  = राजा ने 
राज्यमविभ्रंश्य = नष्ट न होने वाला राज्य 
अन्यजन्मनि = दूसरे जन्म में 
अत्रैव यहाँ ही 
च = और 
निजं = अपना 
राज्यं = राज्य 
हतशत्रुबलं शत्रु सेना द्वारा छीना 
बलात् = बलपूर्वक, जबदस्ती 


तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य और यहाँ (इस जन्म में) ही शत्रु सेना द्वारा जबरदस्ती चीनी गए अपने राज्य का बरदान माँगा । 

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः ।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ॥ १८॥


सोऽपि = वह भी 
वैश्य:= वैश्य 
ततो = तब 
ज्ञानं =ज्ञान 
वव्रे = वरदान माँगा ,
निर्विण्ण= दुखी 
मानसः= मन 
ममेत्यहमिति मम इति अहम इति = ममता और अहम इस 
प्राज्ञः = बुद्धि 
सङ्गविच्युतिकारकम् =(साथ से अलग करने का )  अलगाव करने के 

तब उस दुखी वैश्य ने ममता और अहम इस बुद्धि अलगाव करने के ज्ञान का वरदान माँगा । 

देव्युवाच ॥ १९॥

देवी बोलीं । 

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान् ॥ २०॥

स्वल्पै:= थोड़े 
अहोभि := दिनों में 
नृपते = राजा 
स्वं = अपना 
राज्यं = राज्य 
प्राप्स्यते = प्राप्त करोगे 
भवान् = आप 


हे राजा आप थोड़े दिनों में अपना राज्य प्राप्त करोगे । 


हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति ॥ २१॥

हत्वा =मार कर 
रिपून= शत्रुओं को 
अस्खलितं= स्थिर 
तव = तुम्हारा 
तत्र = वहां 
भविष्यति= होगा 


शत्रुओं को मार कर वहां तुम्हारा स्थिर (राज्य) होगा । 

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः ॥ २२॥

सावर्णिको मनुर्नाम भवान्भुवि भविष्यति ॥ २३॥

मृतश्च = मृत्यु पर 
भूयः = दुबारा 
सम्प्राप्य = प्राप्त करके 
जन्म = जन्म 
देवात् = भगवान 
विवस्वतः = सूर्य से 

सावर्णिको = सावर्णिक
मनु= मनु 
नाम = नाम 
भवान् = आप 
भुवि = पृथ्वी पर 
 भविष्यति = बनेंगे


मृत्यु के बाद भगवान सूर्य से जन्म प्राप्त कर आप पृथ्वी पर सावर्णिक नाम के मनु बनेंगे । 

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः ॥ २४॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति ॥ २५॥

वैश्यवर्य = श्रेष्ठ वैश्य 
 त्वया  तुमने 
यश्च= और जो  
वरोऽस्मत्तो  = वर मुझसे
अभिवाञ्छितः = चाहा है 

तं = उसे 
प्रयच्छामि =देती हूँ 
संसिद्ध्यै = मोक्ष 
तव = तुम्हे 
ज्ञानं = ज्ञान 
भविष्यति = होगा 


और श्रेष्ठ वैश्य तुमने जो वार मुझसे चाहा है वह मैं तुम्हे देती हूँ , तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान होगा । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ २६॥

मार्कण्डेय बोले । 

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम् ।
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता ॥ २७॥

इति = इस प्रकार 
दत्त्वा = दे कर 
तयो = उन को 
देवी = देवी 
यथाभिलषितं = जो इच्छित था 
वरम् = वरदान 
बभूवान्तर्हिता = अंतर्ध्यान हो गयी 
सद्यो = उसी वक़्त 
भक्त्या = भक्ति से 
ताभ्याम= उनके  द्वारा 
अभिष्टुता = स्तुति की जाती हुई ,   


इस प्रकार उनको मनोवांछित वरदान दे कर , भक्तिपूर्वक उन दोनों द्वारा स्तुति की जाती हुई वह देवी उसी वक़्त अंतर्ध्यान हो गयी । 

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥ क्लीं ॐ ॥

एवं = इस प्रकार 
देव्या = देवी से 
वरं = वरदान 
लब्ध्वा = प्राप्त कर 
सुरथः= सुरथ
क्षत्रियर्षभः = ऋषियों में श्रेष्ट 
सूर्याज्जन्म = सूर्य से जन्म ले 
समासाद्य = प्राप्त कर 
सावर्णि= सावर्णि 
भविता = होंगे 
मनुः=मनु 


इस प्रकार ऋषियों में श्रेष्ट सुरथ देवी से वरदान पा सूर्य से जन्म ले सावर्णि मनु होंगे । 

॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥