Tuesday, March 24, 2015

त्रयोदशोऽध्यायः


ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे।।

बालार्क मण्डल आभासां = उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली 
चतुर्बाहुं = चार भुजाओं वाली 
त्रिलोचनाम्= तीन नेत्रों वाली 
पाशाङ्कुशवराभीती: धारयन्तीं = पाश, अंकुश , वर और अभय  मुद्रा धारण करने वाली 

शिवां भजे = शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ । 

उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली चार भुजाओं वाली, तीन नेत्रों वाली ,पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली, शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ । 

ॐ ऋषिरुवाच ॥ १॥

ऋषि बोले । 

एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ।
एवम्प्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत् ॥ २॥

एतत्ते = एतत ते = इस प्रकार आपको 
कथितं = वर्णन कर दिया 
भूप = राज़ा
देवीमाहात्म्यमुत्तमम् = देवी के उत्तम माहात्म्य का 
एवम्प्रभावा = ऐसा प्रभाव है 
सा देवी = उस  देवी 
ययेदं यत इदं = जो इस 
धार्यते = धारण करती  है 
जगत् = जगत को 


हे राजा इस प्रकार आपको देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन कर दिया है , उस देवी का ऐसा प्रभाव है जो इस जगत को दजारां करती है । 

विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया ।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः ॥ ३॥

मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे ।

विद्या = ज्ञान 
तथैव = इस प्रकार ही 
क्रियते = उत्पन्न करती है 
भगवद्विष्णुमायया = भगवान विष्णु की माया स्वरूपा   
तया = उसके द्वारा 
त्वम्= तुम 
एष= यह 
वैश्यश्च वैश्यः च और वैश्य 
तथैवान्ये =तथा एव अन्ये 
विवेकिनः= बुद्धिमान 
मोह्यन्ते= मोहित हुए 
 मोहिता: मोहित होते हैं 
 मोहम् = मोह में , मोहित 
एष्यन्ति = आएंगे , होते रहेंगे 
 च अपरे = और दूसरे भी 


भगवान विष्णु की माया स्वरूपा ज्ञान उत्पन्न करती है, इस प्रकार ही उसके द्वारा तुम और यह वैश्य  और अन्य बुद्धिमान मोहित हुए और मोहित होते हैं । और दूसरे भी मोहित होते रहेंगे ।

तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ॥ ४॥

ताम = उस की 
उपैहि = जाओ , पहुँचो 
महाराज = हे महाराज 
शरणं = शरण में 
परमेश्वरीम् = परमेश्वरी की 


हे महाराज उस परमेश्वरी की शरण में जाओ । 

आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ॥ ५॥

आराधिता = आराधना करने पर 
सैव= सा एव = वे ही 
नृणां = मनुष्यों को 
भोगस्वर्गापवर्गदा = भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं 


आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ ६॥

मार्कण्डे  बोले । 

इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः ॥ ७॥

इति = इस प्रकार 
तस्य = उसके 
वचः = वचनों को 
श्रुत्वा = सुनकर 
सुरथः = सुरथ
स नराधिपः= वह राजा 


इस प्रकार उसके वचनों को सुनकर वह राजा सुरथ

प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् ।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च ॥ ८॥

प्रणिपत्य = प्रणाम कर के 
महाभागं = महाभाग
तमृषिं = उस ऋषिको 
संशितव्रतम् = दृढ़ता से  व्रत का पालन करने वाले 
निर्विण्णो = दुखी , निराश 
अतिममत्वेन = अति ममता 
राज्यापहरणेन = राज्य के अपहरण से 
च = और 


दृढ़ता से  व्रत का पालन करने वाले उस ऋषि महाभाग को  प्रणाम कर के अति ममता और राज्य के अपहरण से दुखी 

जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने ।
सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः  ॥ ९॥

जगाम = गए 
सद्य= उसी वक़्त 
तपसे = तपस्या के लिए 
स च वैश्यो =  वह और वैश्य 
महामुने = महामुनि 
सन्दर्शनार्थम = दर्शनों के लिए 
अम्बाया = अम्बा के 
नदीपुलिन = नदी के किनारे 
संस्थितः = स्थित हो 


हे महानूनी वह और वैश्य तपस्या के लिए नदी के किनारे स्थित हुए । 

स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् ।
तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ॥ १०॥

अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।

स च वैश्य = उसने और वैश्य ने 
तप: = तपस्या 
तेपे = तपी , की 
देवीसूक्तं = देवी सूक्त का 
परं = अत्यधिक 
जपन् = जप कर के 
तौ = वे दोनों 
तस्मिन् = उस 
पुलिने = पल पर 
देव्याः = देवी की 
कृत्वा = बना कर 
मूर्तिं = मूर्ति 
महीमयीम् = मिट्टी की 

अर्हणां = पूजन  
चक्रतु:= किया 
तस्याः = उसका 

पुष्प धूप अग्नि तर्पणैः = फूल, धूप, हवन और तर्पण से 


उसने और वैश्य ने देवीसूक्त का परम जप कर तपस्या की । उन दोनों ने नदी के पल पर देवी की मिटटी की मूर्ति बना कर फूल, धूप, हवन और तर्पण से उसका पूजन किया । 

निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ ॥ ११॥

ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् ।

निराहारौ = बिना भोजन 
यताहारौ  = संयत  भोजन 
तन्मनस्कौ = एकाग्र मन से 
समाहितौ = युक्त हो कर 

ददतु: = दी 
तौ = उन दोनों ने  
बलिं = बलि 
चैव = और ऐसे ही 
निजगात्र= अपने शरीर का  
असृग्= खून 
उक्षितम्= छिड़क कर 


उन दोनों ने एकाग्र मन से युक्त हो कर बिना भोजन , अल्प भोजन कर और ऐसे ही अपने शरीर का खून छिड़क कर बलि दी । 


एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ॥ १२॥

परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥ १३॥

एवं = इस प्रकार
समाराधयत: = आराधना की 
त्रिभि:= तीन 
वर्षै:= वर्षों तक 
यतात्मनोः = मन को संयत करके 

परितुष्टा = संतुष्ट हो 
 जगद्धात्री = जगत को धारण करने वाली 
प्रत्यक्षं = प्रकट हो 
प्राह = कहा 
चण्डिका= चण्डिका ने 


इस प्रकार एकाग्र मन से तीन वर्षों तक आराधना करने पर संतुष्ट हो जगत को धारण करने वाली चण्डिका ने कहा । 

देव्युवाच ॥ १४॥
देवी बोलीं । 

यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन ।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामिते ॥ १५॥

यत्प्रार्थ्यते = जिसके लिए प्रार्थना की है 
त्वया = तुम्हारे द्वारा  
भूप = राजा 
त्वया च कुलनन्दन = और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा  
 मत्= मेरे द्वारा
तत्= वह 
प्राप्यतां = प्राप्त करोगे 
सर्वं = सब 
परितुष्टा = संतुष्ट हुई 
ददामि = प्रदान करुँगी 
ते = और 


हे राजा तुम्हारे द्वारा और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा जिसके लिए प्रार्थना की गयी है वह मेरे द्वारा प्राप्त करोगे और संतुष्ट हुई मैं सब प्रदान करुँगी । 


मार्कण्डेय उवाच ॥ १६॥
मार्कण्डेय बोले । 


ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि ।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ १७॥

ततो = तब 
वव्रे = वरदान माँगा , प्रार्थना की 
नृपो  = राजा ने 
राज्यमविभ्रंश्य = नष्ट न होने वाला राज्य 
अन्यजन्मनि = दूसरे जन्म में 
अत्रैव यहाँ ही 
च = और 
निजं = अपना 
राज्यं = राज्य 
हतशत्रुबलं शत्रु सेना द्वारा छीना 
बलात् = बलपूर्वक, जबदस्ती 


तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य और यहाँ (इस जन्म में) ही शत्रु सेना द्वारा जबरदस्ती चीनी गए अपने राज्य का बरदान माँगा । 

सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः ।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ॥ १८॥


सोऽपि = वह भी 
वैश्य:= वैश्य 
ततो = तब 
ज्ञानं =ज्ञान 
वव्रे = वरदान माँगा ,
निर्विण्ण= दुखी 
मानसः= मन 
ममेत्यहमिति मम इति अहम इति = ममता और अहम इस 
प्राज्ञः = बुद्धि 
सङ्गविच्युतिकारकम् =(साथ से अलग करने का )  अलगाव करने के 

तब उस दुखी वैश्य ने ममता और अहम इस बुद्धि अलगाव करने के ज्ञान का वरदान माँगा । 

देव्युवाच ॥ १९॥

देवी बोलीं । 

स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान् ॥ २०॥

स्वल्पै:= थोड़े 
अहोभि := दिनों में 
नृपते = राजा 
स्वं = अपना 
राज्यं = राज्य 
प्राप्स्यते = प्राप्त करोगे 
भवान् = आप 


हे राजा आप थोड़े दिनों में अपना राज्य प्राप्त करोगे । 


हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति ॥ २१॥

हत्वा =मार कर 
रिपून= शत्रुओं को 
अस्खलितं= स्थिर 
तव = तुम्हारा 
तत्र = वहां 
भविष्यति= होगा 


शत्रुओं को मार कर वहां तुम्हारा स्थिर (राज्य) होगा । 

मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः ॥ २२॥

सावर्णिको मनुर्नाम भवान्भुवि भविष्यति ॥ २३॥

मृतश्च = मृत्यु पर 
भूयः = दुबारा 
सम्प्राप्य = प्राप्त करके 
जन्म = जन्म 
देवात् = भगवान 
विवस्वतः = सूर्य से 

सावर्णिको = सावर्णिक
मनु= मनु 
नाम = नाम 
भवान् = आप 
भुवि = पृथ्वी पर 
 भविष्यति = बनेंगे


मृत्यु के बाद भगवान सूर्य से जन्म प्राप्त कर आप पृथ्वी पर सावर्णिक नाम के मनु बनेंगे । 

वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः ॥ २४॥

तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति ॥ २५॥

वैश्यवर्य = श्रेष्ठ वैश्य 
 त्वया  तुमने 
यश्च= और जो  
वरोऽस्मत्तो  = वर मुझसे
अभिवाञ्छितः = चाहा है 

तं = उसे 
प्रयच्छामि =देती हूँ 
संसिद्ध्यै = मोक्ष 
तव = तुम्हे 
ज्ञानं = ज्ञान 
भविष्यति = होगा 


और श्रेष्ठ वैश्य तुमने जो वार मुझसे चाहा है वह मैं तुम्हे देती हूँ , तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान होगा । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ २६॥

मार्कण्डेय बोले । 

इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम् ।
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता ॥ २७॥

इति = इस प्रकार 
दत्त्वा = दे कर 
तयो = उन को 
देवी = देवी 
यथाभिलषितं = जो इच्छित था 
वरम् = वरदान 
बभूवान्तर्हिता = अंतर्ध्यान हो गयी 
सद्यो = उसी वक़्त 
भक्त्या = भक्ति से 
ताभ्याम= उनके  द्वारा 
अभिष्टुता = स्तुति की जाती हुई ,   


इस प्रकार उनको मनोवांछित वरदान दे कर , भक्तिपूर्वक उन दोनों द्वारा स्तुति की जाती हुई वह देवी उसी वक़्त अंतर्ध्यान हो गयी । 

एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥ क्लीं ॐ ॥

एवं = इस प्रकार 
देव्या = देवी से 
वरं = वरदान 
लब्ध्वा = प्राप्त कर 
सुरथः= सुरथ
क्षत्रियर्षभः = ऋषियों में श्रेष्ट 
सूर्याज्जन्म = सूर्य से जन्म ले 
समासाद्य = प्राप्त कर 
सावर्णि= सावर्णि 
भविता = होंगे 
मनुः=मनु 


इस प्रकार ऋषियों में श्रेष्ट सुरथ देवी से वरदान पा सूर्य से जन्म ले सावर्णि मनु होंगे । 

॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

2 comments:

  1. Respected Sir, this is a wonderful work which you have published. However, I am unable to find Dwadash adhyay (Chapter 12th) translation. I would be very grateful if you can publish the same.
    Warm Regards!

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    1. https://shridurgasaptshati.blogspot.com/2015/03/blog-post_18.html?m=1

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