ध्यानम्
ॐ बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्।
पाशाङ्कुशवराभीतीर्धारयन्तीं शिवां भजे।।
बालार्क मण्डल आभासां = उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली
चतुर्बाहुं = चार भुजाओं वाली
त्रिलोचनाम्= तीन नेत्रों वाली
पाशाङ्कुशवराभीती: धारयन्तीं = पाश, अंकुश , वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली
शिवां भजे = शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ ।
उदयकाल के सूर्यमण्डल की आभा वाली चार भुजाओं वाली, तीन नेत्रों वाली ,पाश, अंकुश, वर और अभय मुद्रा धारण करने वाली, शिवा देवी का ध्यान करता/करती हूँ ।
ॐ ऋषिरुवाच ॥ १॥
ऋषि बोले ।
एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ।
एवम्प्रभावा सा देवी ययेदं धार्यते जगत् ॥ २॥
एतत्ते = एतत ते = इस प्रकार आपको
कथितं = वर्णन कर दिया
भूप = राज़ा
देवीमाहात्म्यमुत्तमम् = देवी के उत्तम माहात्म्य का
एवम्प्रभावा = ऐसा प्रभाव है
सा देवी = उस देवी
ययेदं यत इदं = जो इस
धार्यते = धारण करती है
जगत् = जगत को
हे राजा इस प्रकार आपको देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन कर दिया है , उस देवी का ऐसा प्रभाव है जो इस जगत को दजारां करती है ।
विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया ।
तया त्वमेष वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः ॥ ३॥
मोह्यन्ते मोहिताश्चैव मोहमेष्यन्ति चापरे ।
विद्या = ज्ञान
तथैव = इस प्रकार ही
क्रियते = उत्पन्न करती है
भगवद्विष्णुमायया = भगवान विष्णु की माया स्वरूपा
तया = उसके द्वारा
त्वम्= तुम
एष= यह
वैश्यश्च वैश्यः च और वैश्य
तथैवान्ये =तथा एव अन्ये
विवेकिनः= बुद्धिमान
मोह्यन्ते= मोहित हुए
मोहिता: मोहित होते हैं
मोहम् = मोह में , मोहित
एष्यन्ति = आएंगे , होते रहेंगे
च अपरे = और दूसरे भी
भगवान विष्णु की माया स्वरूपा ज्ञान उत्पन्न करती है, इस प्रकार ही उसके द्वारा तुम और यह वैश्य और अन्य बुद्धिमान मोहित हुए और मोहित होते हैं । और दूसरे भी मोहित होते रहेंगे ।
तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ॥ ४॥
ताम = उस की
उपैहि = जाओ , पहुँचो
महाराज = हे महाराज
शरणं = शरण में
परमेश्वरीम् = परमेश्वरी की
हे महाराज उस परमेश्वरी की शरण में जाओ ।
आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा ॥ ५॥
आराधिता = आराधना करने पर
सैव= सा एव = वे ही
नृणां = मनुष्यों को
भोगस्वर्गापवर्गदा = भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं
आराधना करने पर वे ही मनुष्यों को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं ।
मार्कण्डेय उवाच ॥ ६॥
मार्कण्डेय बोले ।
इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः स नराधिपः ॥ ७॥
इति = इस प्रकार
तस्य = उसके
वचः = वचनों को
श्रुत्वा = सुनकर
सुरथः = सुरथ
स नराधिपः= वह राजा
इस प्रकार उसके वचनों को सुनकर वह राजा सुरथ
प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं संशितव्रतम् ।
निर्विण्णोऽतिममत्वेन राज्यापहरणेन च ॥ ८॥
प्रणिपत्य = प्रणाम कर के
महाभागं = महाभाग
तमृषिं = उस ऋषिको
संशितव्रतम् = दृढ़ता से व्रत का पालन करने वाले
निर्विण्णो = दुखी , निराश
अतिममत्वेन = अति ममता
राज्यापहरणेन = राज्य के अपहरण से
च = और
दृढ़ता से व्रत का पालन करने वाले उस ऋषि महाभाग को प्रणाम कर के अति ममता और राज्य के अपहरण से दुखी
जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने ।
सन्दर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः ॥ ९॥
जगाम = गए
सद्य= उसी वक़्त
तपसे = तपस्या के लिए
स च वैश्यो = वह और वैश्य
महामुने = महामुनि
सन्दर्शनार्थम = दर्शनों के लिए
अम्बाया = अम्बा के
नदीपुलिन = नदी के किनारे
संस्थितः = स्थित हो
हे महानूनी वह और वैश्य तपस्या के लिए नदी के किनारे स्थित हुए ।
स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन् ।
तौ तस्मिन् पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिं महीमयीम् ॥ १०॥
अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः ।
स च वैश्य = उसने और वैश्य ने
तप: = तपस्या
तेपे = तपी , की
देवीसूक्तं = देवी सूक्त का
परं = अत्यधिक
जपन् = जप कर के
तौ = वे दोनों
तस्मिन् = उस
पुलिने = पल पर
देव्याः = देवी की
कृत्वा = बना कर
मूर्तिं = मूर्ति
महीमयीम् = मिट्टी की
अर्हणां = पूजन
चक्रतु:= किया
तस्याः = उसका
पुष्प धूप अग्नि तर्पणैः = फूल, धूप, हवन और तर्पण से
उसने और वैश्य ने देवीसूक्त का परम जप कर तपस्या की । उन दोनों ने नदी के पल पर देवी की मिटटी की मूर्ति बना कर फूल, धूप, हवन और तर्पण से उसका पूजन किया ।
निराहारौ यताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ ॥ ११॥
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् ।
निराहारौ = बिना भोजन
यताहारौ = संयत भोजन
तन्मनस्कौ = एकाग्र मन से
समाहितौ = युक्त हो कर
ददतु: = दी
तौ = उन दोनों ने
बलिं = बलि
चैव = और ऐसे ही
निजगात्र= अपने शरीर का
असृग्= खून
उक्षितम्= छिड़क कर
उन दोनों ने एकाग्र मन से युक्त हो कर बिना भोजन , अल्प भोजन कर और ऐसे ही अपने शरीर का खून छिड़क कर बलि दी ।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ॥ १२॥
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥ १३॥
एवं = इस प्रकार
समाराधयत: = आराधना की
त्रिभि:= तीन
वर्षै:= वर्षों तक
यतात्मनोः = मन को संयत करके
परितुष्टा = संतुष्ट हो
जगद्धात्री = जगत को धारण करने वाली
प्रत्यक्षं = प्रकट हो
प्राह = कहा
चण्डिका= चण्डिका ने
इस प्रकार एकाग्र मन से तीन वर्षों तक आराधना करने पर संतुष्ट हो जगत को धारण करने वाली चण्डिका ने कहा ।
देव्युवाच ॥ १४॥
देवी बोलीं ।
यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया च कुलनन्दन ।
मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामिते ॥ १५॥
यत्प्रार्थ्यते = जिसके लिए प्रार्थना की है
त्वया = तुम्हारे द्वारा
भूप = राजा
त्वया च कुलनन्दन = और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा
मत्= मेरे द्वारा
तत्= वह
प्राप्यतां = प्राप्त करोगे
सर्वं = सब
परितुष्टा = संतुष्ट हुई
ददामि = प्रदान करुँगी
ते = और
हे राजा तुम्हारे द्वारा और कुलनन्दन तुम्हारे द्वारा जिसके लिए प्रार्थना की गयी है वह मेरे द्वारा प्राप्त करोगे और संतुष्ट हुई मैं सब प्रदान करुँगी ।
मार्कण्डेय उवाच ॥ १६॥
मार्कण्डेय बोले ।
ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि ।
अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात् ॥ १७॥
ततो = तब
वव्रे = वरदान माँगा , प्रार्थना की
नृपो = राजा ने
राज्यमविभ्रंश्य = नष्ट न होने वाला राज्य
अन्यजन्मनि = दूसरे जन्म में
अत्रैव यहाँ ही
च = और
निजं = अपना
राज्यं = राज्य
हतशत्रुबलं शत्रु सेना द्वारा छीना
बलात् = बलपूर्वक, जबदस्ती
तब राजा ने दूसरे जन्म में नष्ट न होने वाला राज्य और यहाँ (इस जन्म में) ही शत्रु सेना द्वारा जबरदस्ती चीनी गए अपने राज्य का बरदान माँगा ।
सोऽपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विण्णमानसः ।
ममेत्यहमिति प्राज्ञः सङ्गविच्युतिकारकम् ॥ १८॥
सोऽपि = वह भी
वैश्य:= वैश्य
ततो = तब
ज्ञानं =ज्ञान
वव्रे = वरदान माँगा ,
निर्विण्ण= दुखी
मानसः= मन
ममेत्यहमिति मम इति अहम इति = ममता और अहम इस
प्राज्ञः = बुद्धि
सङ्गविच्युतिकारकम् =(साथ से अलग करने का ) अलगाव करने के
तब उस दुखी वैश्य ने ममता और अहम इस बुद्धि अलगाव करने के ज्ञान का वरदान माँगा ।
देव्युवाच ॥ १९॥
देवी बोलीं ।
स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान् ॥ २०॥
स्वल्पै:= थोड़े
अहोभि := दिनों में
नृपते = राजा
स्वं = अपना
राज्यं = राज्य
प्राप्स्यते = प्राप्त करोगे
भवान् = आप
हे राजा आप थोड़े दिनों में अपना राज्य प्राप्त करोगे ।
हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति ॥ २१॥
हत्वा =मार कर
रिपून= शत्रुओं को
अस्खलितं= स्थिर
तव = तुम्हारा
तत्र = वहां
भविष्यति= होगा
शत्रुओं को मार कर वहां तुम्हारा स्थिर (राज्य) होगा ।
मृतश्च भूयः सम्प्राप्य जन्म देवाद्विवस्वतः ॥ २२॥
सावर्णिको मनुर्नाम भवान्भुवि भविष्यति ॥ २३॥
मृतश्च = मृत्यु पर
भूयः = दुबारा
सम्प्राप्य = प्राप्त करके
जन्म = जन्म
देवात् = भगवान
विवस्वतः = सूर्य से
सावर्णिको = सावर्णिक
मनु= मनु
नाम = नाम
भवान् = आप
भुवि = पृथ्वी पर
भविष्यति = बनेंगे
मृत्यु के बाद भगवान सूर्य से जन्म प्राप्त कर आप पृथ्वी पर सावर्णिक नाम के मनु बनेंगे ।
वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोऽस्मत्तोऽभिवाञ्छितः ॥ २४॥
तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तव ज्ञानं भविष्यति ॥ २५॥
वैश्यवर्य = श्रेष्ठ वैश्य
त्वया तुमने
यश्च= और जो
वरोऽस्मत्तो = वर मुझसे
अभिवाञ्छितः = चाहा है
तं = उसे
प्रयच्छामि =देती हूँ
संसिद्ध्यै = मोक्ष
तव = तुम्हे
ज्ञानं = ज्ञान
भविष्यति = होगा
और श्रेष्ठ वैश्य तुमने जो वार मुझसे चाहा है वह मैं तुम्हे देती हूँ , तुम्हें मोक्ष के लिए ज्ञान होगा ।
मार्कण्डेय उवाच ॥ २६॥
मार्कण्डेय बोले ।
इति दत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम् ।
बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता ॥ २७॥
इति = इस प्रकार
दत्त्वा = दे कर
तयो = उन को
देवी = देवी
यथाभिलषितं = जो इच्छित था
वरम् = वरदान
बभूवान्तर्हिता = अंतर्ध्यान हो गयी
सद्यो = उसी वक़्त
भक्त्या = भक्ति से
ताभ्याम= उनके द्वारा
अभिष्टुता = स्तुति की जाती हुई ,
इस प्रकार उनको मनोवांछित वरदान दे कर , भक्तिपूर्वक उन दोनों द्वारा स्तुति की जाती हुई वह देवी उसी वक़्त अंतर्ध्यान हो गयी ।
एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः ।
सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः ॥ क्लीं ॐ ॥
एवं = इस प्रकार
देव्या = देवी से
वरं = वरदान
लब्ध्वा = प्राप्त कर
सुरथः= सुरथ
क्षत्रियर्षभः = ऋषियों में श्रेष्ट
सूर्याज्जन्म = सूर्य से जन्म ले
समासाद्य = प्राप्त कर
सावर्णि= सावर्णि
भविता = होंगे
मनुः=मनु
इस प्रकार ऋषियों में श्रेष्ट सुरथ देवी से वरदान पा सूर्य से जन्म ले सावर्णि मनु होंगे ।
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥
Respected Sir, this is a wonderful work which you have published. However, I am unable to find Dwadash adhyay (Chapter 12th) translation. I would be very grateful if you can publish the same.
ReplyDeleteWarm Regards!
https://shridurgasaptshati.blogspot.com/2015/03/blog-post_18.html?m=1
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