ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरुढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।।
ॐ
कालाभ्राभां = काल अभ्र आभाम् = काले बादल की आभा वाली
कटाक्षै: अरिकुलभयदां = कटाक्षों से शत्रुओं को भय देने वाली
मौलिबद्ध इन्दुरेखां = मस्तक पर बंधी चन्द्रमा की रेखा वाली
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि = शंख, चक्र कृपाण और त्रिशूल
करै: उद्वहन्तीं = हाथ में धारण करने वाली
त्रिनेत्राम्= तीन नेत्रों वाली
सिंहस्कन्धाधिरुढां = सिंह के कंधे पर बैठी
त्रिभुवनम अखिलं = सभी तीनों लोकों को
तेजसा = तेज से
पूरयन्तीं = भरने वाली
ध्यायेद् = ध्यान करें
दुर्गां = दुर्गा का
जयाख्यां = जया कही जाने वाली
त्रिदशपरिवृतां = देवताओं से घिरी
सेवितां = सेवित
सिद्धिकामैः= सिद्धि की इच्छा रखने वालों द्वारा
काले बादल की आभा वाली ,कटाक्षों से शत्रुओं को भय देने वाली , मस्तक पर बंधी चन्द्रमा की रेखा वाली ,शंख, चक्र कृपाण और त्रिशूल हाथ में धारण करने वाली , तीन नेत्रों वाली ,सिंह के कंधे पर बैठी, सभी तीनों लोकों को तेज से भरने वाली , सिद्धि की इच्छा रखने वालों द्वारा सेवित , देवताओं से घिरी, जया कही जाने वाली दुर्गा देवी का ध्यान करें ।
ॐ ऋषिरुवाच ॥ १॥
ऋषि बोले ।
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥ २॥
शक्रादयः = इंद्र की अगवाई में
सुरगणाः = सुरगण
निहते = मारे जाने पर
अतिवीर्ये = अत्यंत पराक्रमी
तस्मिन् = उसके
दुरात्मनि =दुष्ट
सुरारिबले= सुर अरि बले =देवताओं के दुश्मन यानी असुरों की सेना
च = और
देव्या = देवी द्वारा
तां = उस
तुष्टुवुः = प्रशंसा की
प्रणतिनम्रशिरोधरांसाः=प्रणति,प्रणाम | नम्र, झुकेहुए | शिरः= सर , धर bearing, अंसाः= कंधे
वग्भिः = शब्दों द्वारा
प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः=प्रहर्ष, बहुत खुश , पुलक, रोएँ उठना , उद्गम, प्रकट होना , चारु, सुन्दर ,देहाः =शरीर
देवी द्वारा अत्यंत बलि दुष्ट उस (महिषासुर) और असुरसेना के मारे जाने पर इंद्र की अगवाई में प्रणाम के लिए झुके हुए गर्दन और कंधे और ख़ुशी से पुलकित सुन्दर देह वाले सुरगण उत्तम वचनों द्वारा उस देवी का स्तवन करने लगे ।
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निःशेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या ।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ ३॥
देव्या = देवी
यया = जिनकी
ततमिदं = ततम् = व्याप्त है, फैला है
इदं = ये
जगदात्मशक्त्या जगत = संसार
आत्म शक्ति = आत्म शक्ति से
निःशेष = सभी
देवगण = देवगणों की
शक्तिसमूह शक्ति समूह की
मूर्त्या = मूर्ति है
तामम्बिकाम = उस अम्बिका को
अखिल = सारे
देवमहर्षि - देव ऋषियों द्वारा पूज्य
पूज्यां = पूज्य
भक्त्या = भक्ति पूर्वक
नताः स्म = हम नमन करते हैं
विदधातु = करे
शुभानि = कल्याण
सा नः वह हमारा
देवी जिनकी आत्मशक्ति से ये संसार व्याप्त है , जो सभी देवताओं की शक्ति समूह की मूर्ति है, सारे देव ऋषियों द्वारा पूज्य उस अम्बिका को हम नमन करते हैं , वह हमारा कल्याण करें ।
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ ४॥
यस्याः = जिसका
प्रभावम् = प्रभाव
अतुलम् = अतुलनीय
भगवान् = भगवान
अनन्तः = विष्णु
ब्रह्मा = ब्रह्मा
हरः = शिव
च न हि = और न ही
वक्तुम् = बताना , कहना
अलं = योग्य
बलं च = बल
सा = वह
चण्डिका = चण्डिका देवी
अखिलजगत्परिपालनाय = सारे जगत के पालन की
नाशाय च= और नाश की
अशुभचयस्य अशुभ भयस्य = अशुभ का भय
मतिं करोतु = सोचे ,
जिसके प्रभाव और बल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा और न ही शिव बताने में समर्थ हैं , वह चण्डिका देवी सारे जगत के पालन और सभी अशुभ भय के नाश की मति करे या सोचे ।
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥ ५॥
या = जो
श्रीः = लक्ष्मी
स्वयं = खुद
सुकृतिनां = अच्छे लोगों के
भवनेषु, = घर में
अलक्ष्मीः = अलक्ष्मी (दरिद्रता )
पापात्मनाम्, = पापियों के
कृतधियां = = विवेकी ,परिष्कृत मन वाले
हृदयेषु = हृदय में
बुद्धिः, = बुद्धि
श्रद्धा = श्रद्धा
सतां = संतों के
हृदि, = मन में
कुलजनप्रभवस्य = कुलीन लोगों के
लज्जा,= लज्जा
तां = उन
त्वां = आप
नताः स्म, = प्रणाम करते हैं
परिपालय देवि विश्वम् = देवी विश्व का पालन करो
जो स्वयं अच्छे लोगों के घर में लक्ष्मी , पापियों के घर में दरिद्रता , सत्पुरुषों के हृदय में श्रद्धा के रूप में है उन आप भगवती को हम प्रणाम करते हैं , हे देवी विश्व का पालन करिये ।
किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किञ्चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि ।
किं चाहवेषु चरितानि तवाति यानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ॥ ६॥
किं = क्या
वर्णयाम्= वर्णन हो सकता है
तव = तुम्हारे
रूपमचिन्त्यम् एतत् = इस अचिन्तय रूप का
किं= क्या
च = और
अतिवीर्यम् = अत्यंत पराक्रम का
असुरक्षयकारि= असुरों का विनाश करने वाले
भूरि = अधिक , महान
किं = क्या
च= और
आहवेषु = चुनौती, युद्ध में
चरितानि =चरित्र है
तव अति = तुम्हारे अत्यंत
यानि= जो , ऐसा
सर्वेषु = सभी
देव्य = देवी = हे देवी
असुरदेवगणादिकेषु = असुरों , देवताओं आदि में, पर
तुम्हारे इस अचिन्तय रूप का और महान असुरों का विनाश करने वाले अत्यंत पराक्रम का और युद्ध में सभी असुरों, देवताओं आदि में जो तुम्हारे अत्यंत चरित्र है उनका क्या वर्णन हो सकता है ।
हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै-
र्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥ ७॥
हेतुः = कारण
समस्तजगतां = सारे जगत का
त्रिगुणापि = त्रिगुणी हो कर भी
दोषै: = दोष
न = नहीं
ज्ञायसे = दीखता
हरिहरादिभि:= विष्णु , शिव आदि देवता भी
अपि= भी
अपारा = जिसका पार नहीं पा सकते
सर्व आश्रया = सब का आश्रय
अखिलमिदं = यह सारा
जगदंशभूतम् = जगत आपका ही अंशभूत है
अव्याकृता= अव्याकृता
हि = निश्चित ही
परमा = परम
प्रकृति:= प्रकृति
तवं =तुम
आद्या = आदिभूत
हे देवी तुम सारे जगत का (उत्पत्ति का ) कारण हो , त्रिगुणी(सत्व, राज, तम) हो कर भी दोष नहीं दीखता, विष्णु , शिव आदि देवता भी जिसका पार नहीं पा सकते , यह सारा जगत आपका ही अंशभूत है । तुम निश्चित ही आदिभूत अव्याकृता ,परम प्रकृति हो ।
यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ॥ ८॥
यस्याः = जिसके
समस्तसुरता = सभी देवता
समुदीरणेन= उच्चारण से
तृप्तिं = तृप्ति
प्रयाति = प्राप्त करते हैं
सकलेषु= सभी
मखेषु = यज्ञों में
देवि = हे देवी
स्वाहासि = स्वाहा
वै = निश्चित रूप से
पितृगणस्य= पितृगणों की
च = और
तृप्तिहेतु: = तृप्ति के लिए
उच्चार्यसे = उच्चारित
त्वमत एव = तुम ही हो
जनैः = लोग
स्वधा च= और स्वधा
सभी यज्ञों में सारे देवता जिस के उच्चारण से तृप्ति प्राप्त करते हैं वह स्वाहा और पितृगणों की तृप्ति के लिए उच्चारित स्वधा हे देवी निश्चित रूप से आप ही हैं ।
या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्वं
अभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥ ९॥
या = जिसका
मुक्तिहेतु: = मोक्ष प्राप्ति का साधन
अविचिन्त्यमहाव्रता = अचिन्त्य महाव्रत स्वरूपा
त्वं = तुम हो
अभ्यस्यसे = अभ्यास करते हैं
सुनियतेन्द्रिय = जितेन्द्रिय
तत्त्वसारैः = तत्व को ही सार वस्तु मानने वाले
मोक्षार्थिभि: = मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले
मुनिभि: = मुनिजन
अस्त समस्तदोषै=सारे दोषों से रहित
विद्या असि = विद्या हैं
सा = वह
भगवती= भगवती
परमा = परा
हि देवि= और हे देवी
और हे देवी सारे दोषों से रहित, जितेन्द्रिय, तत्व को ही सार वस्तु मानने वाले, मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह मोक्ष प्राप्ति का साधन, अचिन्त्य, महाव्रत स्वरूपा, परा विद्या भगवती आप हैं ।
शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषाम् निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवि त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥ १०॥
शब्दात्मिका = शब्दों की आत्मा
सुविमलर्ग्यजुषाम् सुविमल ऋग् यजुषाम् = अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद
निधानम् = निधि, खजाना
उद्गीथ रम्यपद पाठवतां = उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों
च = और
साम्नाम् = सामवेद
देवि = देवी
त्रयी = त्रयी (तीनों वेद )
भगवती = भगवती हैं
भवभावनाय = संसार के पालन के लिए
वार्ता = वार्ता (खेती और आजीविका )
च = और
सर्वजगतां = सारे संसार की
परम आर्तिहन्त्री= पीड़ाओं को हरने वाली
हे देवी आप अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद के शब्दों की आत्मा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों और सामवेद का खज़ाना ,संसार के पालन के लिए वार्ता (खेती और आजीविका ), सारे संसार की पीड़ाओं को हरने वाली त्रयी (तीनों वेद ), भगवती हैं ।
मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥ ११॥
मेधासि = मेधा (बुद्धि) शक्ति हैं
देवि = हे देवी
विदित अखिल शास्त्र सारा= सारे शास्त्रों के सार का ज्ञान कराने वाली
दुर्गासि = दुर्गा
दुर्ग भव सागर नौ: असङ्गा = दुर्गम भव सागर से पार उतारने वाली नौका रूप
श्रीः = लक्ष्मी
कैटभारि= कैटभ के दुश्मन विष्णु के
हृदयैककृताधिवासा= हृदय में एक मात्र निवास करने वाली
गौरी = पार्वती
त्वमेव = तुम ही
शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा = शिव द्वारा सम्मानित
हे देवी सारे शास्त्रों के सार का ज्ञान कराने वाली मेधा (बुद्धि) शक्ति , दुर्गम भव सागर से पार उतारने वाली नौका रूप दुर्गा , कैटभ के दुश्मन विष्णु के हृदय में एक मात्र निवास करने वाली लक्ष्मी , शिव द्वारा सम्मानित पार्वती तुम ही हो ।
ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ॥ १२॥
ईषत् = मंद , धीमी
सहासम् = हंसी से
अमलं = सुन्दर
परिपूर्णचन्द्र= पूरे चन्द्रमा के
बिम्बानुकारि = बिम्ब का अनुकरण करने वाला
कनकोत्तम कान्ति कान्तम् = शुद्ध सोने की चमक जैसा कांतिमय
अत्यद्भुतं = अत्यंत आश्चर्यजनक है
प्रहृतम्= प्रहार किया गया
आत्तरुषा = क्रोध में
तथापि = तो भी
वक्त्रं = मुख
विलोक्य = देख कर
सहसा = अचानक
महिषासुरेण = महिसासुर द्वारा
धीमी हंसी से सुन्दर पूरे चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला शुद्ध सोने की चमक जैसा कांतिमय मुख देख कर भी महिसासुर द्वारा सहसा प्रहार किया गया , अत्यंत आश्चर्यजनक है ।
दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः ।
प्राणान् मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ॥ १३॥
दृष्ट्वा = देख कर
तु = और
देवि = देवी
कुपितं = क्रोध से
भ्रुकुटीकरालम् = भयानक भौहों वाले
उद्यत् शशाङ्क सदृशच्छवि = उदित होते चन्द्रमा के सामान लाल छवि को
यन्न = यत् न = जो नहीं
सद्यः= तुरंत
प्राणान् = प्राणों को
मुमोच = छोड़ दिया
महिष: = महिषासुर
तत् अतीव = वह अत्यंत
चित्रं = विचित्र है
कैर्जीव्यते = कौन जीत रह सकता है
हि =क्यूंकि
कुपिता = क्रोधित
अन्तक = यम को
दर्शनेन = देख कर
और देवी क्रोध से भयानक भौहों वाले उदित होते चन्द्रमा के सामान लाल छवि को देख कर जो महिषासुर ने तुरंत प्राण नहीं छोड़ दिए वह अत्यंत विचित्र है क्यूंकि क्रोधित यम को देखकर कौन जीवित रह सकता है ।
देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि ।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥ १४॥
देवि = देवी
प्रसीद = प्रसन्न हो जाओ
परमा = परमात्मस्वरूप
भवती = आप
भवाय = कल्याण के लिए
सद्यो = तुरंत
विनाशयसि = नष्ट कर देती हो
कोपवती = क्रोधित होने पर
कुलानि =कुलों को
विज्ञातम् = ज्ञात हुआ है
एतत् = ये
अधुनैव = अभी ही
यत् = जो
अस्तम्= नष्ट
एतत् = ये
नीतं = कर दी है
बलं = सेना
सुविपुलं = विशाल
महिषासुरस्य= महिषासुर की
हे परमात्मस्वरूपा देवी हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न हो जाओ । आप क्रोधित होने पर कुलों को नष्ट कर देती हो , ये अभी ही ज्ञात हुआ है जो आपने महिषासुर की विशाल सेना को तुरंत नष्ट कर दिया है ।
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति बन्धुवर्गः ।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥ १५॥
ते = वे
सम्मता = सम्मानित होते हैं
जनपदेषु = देश में
धनानि = धन , संपत्ति
तेषां = उनका
तेषां = उनका
यशांसि = यश
न = नहीं
च = और
सीदति = कमज़ोर , शिथिल
धर्मवर्गः= धरम कुल
धन्यास्त = धन्य वे
एव = ही
निभृत= विनीत , शीलयुक्त
आत्मज= संतान
भृत्य= नौकर
दारा= पत्नी
येषां = जिन पर
सदा अभ्युदयदा = हमेशा सौभाग्य देने वाली
भवती = आप
प्रसन्ना= प्रसन्न होती हैं
हमेशा सौभाग्य देने वाली आप जिन पर प्रसन्न होती हैं वे देश में सम्मानि होते हैं , उनका धन उनकी संपत्ति और धरम कुल शिथिल नहीं होता । विनीत संतान , नौकर और पत्नी से वे धन्य होते हैं ।
धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति ।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ॥ १६॥
धर्म्याणि = धरम के
देवि = हे देवी
सकलानि = सभी
सदैव = हमेशा
कर्माणि = कर्म
अति = अत्यंत
आदृतः = सावधानी से
प्रतिदिनं = प्रतिदिन
सुकृती = अच्छे कर्मकरने वाले, पुण्यात्मा
करोति = करते हैं
स्वर्गं = स्वर्ग
प्रयाति = प्राप्त करते हैं
च = और
ततो = तब
भवती = आपकी
प्रसादात् = कृपा से
लोकत्रयेऽपि = तीनों लोकों में भी
फलदा = फल देने वाली हैं
ननु = निश्चय ही
देवि = देवी
तेन = इस प्रकार
आपकी कृपा से पुण्यात्मा हमेशा सावधानी से प्रतिदिन धरम के सभी काम करते हैं और तब स्वर्ग प्राप्त करते हैं । इस प्रकार हे देवी आप निश्चय ही तीनों लोकों के भी फल देने वाली हैं ।
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाद्र।र्चित्ता ॥ १७॥
दुर्गे = कठिन समय में
स्मृता = स्मरण करने पर
हरसि = हरती हो
भीतिम = भय को
अशेषजन्तोः = सभी प्राणियों का
स्वस्थैः = अच्छे समय में
स्मृता = स्मरण करने पर
मतिम्= बुद्धि
अतीव = अत्यंत
शुभां = शुभ
ददासि = देती हो
दारिद्रदुःखभयहारिणि = गरीबी , दुःख , भय को हरने वाली
का = कौन
त्वत् अन्य = तुम्हारे सिवा
सर्व उपकारकरणाय = सब का उपकार करने के लिए
सदा = हमेशा
आद्र = दया से भीगा , नम
चिता = मन
गरीबी , दुःख , भय को हरने वाली देवी कठिन समय में स्मरण करने पर सभी प्राणियों के भय को हरती हो । अच्छे समय में स्मरण करने पर अत्यंत शुभ बुद्धि देती हो । तुम्हारे सिवा कौन है जिसका मन सब का उपकार करने के लिए हमेशा दयाद्र रहता है ।
एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम् ।
सङ्ग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि ॥ १८॥
एभि:= इन (राक्षसों) को
हतै: = मार कर
जगदुपैति = जगत उपैति = संसार को पहुंचे
सुखं = सुख
तथैते= तथा एते = और ये (राक्षस )
कुर्वन्तु = किये हैं
नरकाय नाम = नरक के लिए
चिराय = देर तक
पापम् =पाप
सङ्ग्राममृत्युम अधिगम्य = संग्राम में मृत्यु प्राप्त करके
दिवं = स्वर्ग
प्रयान्तु = प्राप्त करें
मत्वेति मति इति = इसप्रकार सोच कर
नूनम् = निश्चय ही
अहितान् = शत्रुओं को
विनिहंसि = नष्ट किया है , मारा है
देवि = हे देवी
इन (राक्षसों) को मार कर संसार को सुख पहुंचे और ये (राक्षस ) (जिन्होंने ) नरक के लिए देर तक पाप किये हैं संग्राम में मृत्यु प्राप्त करके स्वर्ग प्राप्त करें, हे देवी निश्चय ही इस प्रकार सोच कर आपने शत्रुओं को मारा है ।
दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम् ।
लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वहितेषुसाध्वी ॥ १९॥
दृष्ट्वैव = देख कर ही
किं = क्यों
न =नहीं
भवती = आप
प्रकरोति = कर देती
भस्म= भस्म , राख
सर्वासुरानरिषु = सभी असुरों को
यत्प्रहिणोषि = जो प्रहार करती हैं , फेंकती हैं
शस्त्रम् = शस्त्रों को
लोकान् प्रयान्तु = स्वर्ग लोक प्राप्त करें
रिपवोऽपि = शत्रु भी
हि = निश्चय ही
शस्त्रपूता = शस्त्र से पवित्र हो
इत्थं = ऐसी
मति: भवति= सोच होती हैं
तेष्वहितेषु = उनके हित में
साध्वी = अच्छी
आप सभी असुरों को देख कर ही भस्म क्यों नहीं कर देती जो शास्त्रों से प्रहार करती हैं । निश्चय ही शस्त्र से पवित्र हो शत्रु भी स्वर्ग लोक प्राप्त करें ऐसी उनके हित में अच्छी सोच होती हैं ।
खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ॥ २०॥
खड्ग = तलवार से
प्रभा = चमक , रौशनी के
निकर = समूह से
विस्फुरणै:= . कौंधना। (बिजली का)
तथा = और
उग्रैः= तीक्ष्ण
शूलाग्र = त्रिशूल की नोक के
कान्ति = प्रकाश
निवहेन = ढेर , पुंज
दृशो असुराणाम् = असुरों की दृष्टि
यत न आगता = जो नहीं हुई
विलयम् = नष्ट
अन्शुमत् = प्रभायुक्त
इन्दुखण्ड-योग्य = चाँद के टुकड़े जैसे
आननं = मुख को
तव = तम्हारा
विलोकयतां = देख रहे होंगे
तत् = तब
एतत् = इस
रौशनी के समूह से कौंधती तलवार से तीक्ष्ण त्रिशूल की नोक के प्रकाश पुंज से जो असुरों की दृष्टि नष्ट नहीं हुई (क्यूँकि वे ) तब इस प्रभायुक्त चाँद के टुकड़े जैसे मुख को देख रहे होंगे ।
दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ॥ २१॥
दुर्वृत्त = दुराचारियों के
वृत्तशमनं= बुरे व्यवहार को दूर करने वाला है
तव = तुम्हारा
देवि = हे देवी
शीलं = शील
रूपं = रूप
तथा एतत = और यह
अविचिन्त्यम् = चिंतन से परे
अतुल्यम अन्यैः = दूसरों से तुलना से पर है
वीर्यं = पराक्रम
च = और
हन्तृ = नष्ट करने वाला है
हृतदेवपराक्रमाणां = देवताओं के पराक्रम को नष्ट करने वालों को
वैरिष्वपि = शत्रुओं पर भी
प्रकटिते = दिखाई है
एव = ही
दया = दया
त्वयि = तुम्हारे द्वारा
इत्थम् = इस प्रकार
हे देवी तुम्हारा शील दुराचारियों के बुरे व्यवहार को दूर करने वाला है और ये रूप चिंतन से परे और दूसरों से तुलना से पर है, और पराक्रम देवताओं के पराक्रम को नष्ट करने वालों को नष्ट करने वाला है । इस प्रकार शत्रुओं पर भी तुम्हारे द्वारा दया ही दिखाई गयी है ।
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥ २२॥
केन = क्या
उपमा = तुलना
भवतु = होगी
ते अस्य = आपके इस
पराक्रमस्य = पराक्रम की
रूपं = रूप
च = और
शत्रु भयकार्य= शत्रुओं में भय करने वाला
अतिहारि = अत्यंत मनोहर
कुत्र= कहाँ होगा
चित्ते = मन में
कृपा = दया
समरनिष्ठुरता = युद्ध में निष्ठुरता
च = और
दृष्टा = देखी है
त्वय्येव = तुम में ही
देवि = हे देवी
वरदे = वरदान देने वाली
भुवनत्रये अपि = तीनों लोकों में भी
हे वरदान देने वाली देवी आपके इस पराक्रम की क्या तुलना होगी और शत्रुओं में भय करने वाला अत्यंत मनोहर कहाँ होगा । मन में दया और युद्ध में निष्ठुरता भी तीनों लोकों में तुम में ही देखी है ।
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा ।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम्
अस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥ २३॥
त्रैलोक्यम एतत अखिलं = इस सारे त्रिलोक की
रिपुनाशनेन्= शत्रुओं के नाश से
त्रातं = रक्षा की है
त्वया = तुमने
समरमूर्धनि = युद्ध भूमि में
तेऽपि = उनको भी
हत्वा = मार कर
नीता = प्राप्त करवाया है
दिवं = स्वर्ग
रिपुगणा = शत्रुओं को
भयं अपि = भय को भी
अपास्तम् = दूर किया है
अस्माकम्= हमारे
उन्मत् असुरारि = उन्मत असुरों से
अभवन् = हुए
नमस्ते = आपको नमस्कार है ।
शत्रुओं के नाश से इस सारे त्रिलोक की रक्षा की है । युद्ध भूमि में उन शत्रुओं को मार कर स्वर्ग प्राप्त कराया है । उन्मत असुरों से हुए हमारे भय को भी दूर किया है । आपको नमस्कार है ।
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके ।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ २४॥
शूलेन = शूल से
पाहि = रक्षा करो
नो = हमारे
देवि = हे देवी
पाहि = रक्षा करो
खड्गेन = तलवार से
च = और
अम्बिके= अम्बिका
घण्टास्वनेन = घंटे की आवाज़ से
नः =हमारी
पाहि = रक्षा करो
चापज्यानिःस्वनेन = धनुष की टंकार से
च = और
हे देवी शूल से हमारी रक्षा करो , और अम्बिका तलवार से और घंटे की आवाज़ से और धनुष की टंकार से हमारी रक्षा करो ।
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे ।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥ २५॥
प्राच्यां = पूर्व से
रक्ष = रक्षा करें
प्रतीच्यां = पश्चिम
च = और
चण्डिके = चण्डिका
रक्ष = रक्षा करो
दक्षिणे = दक्षिण से
भ्रामणेन= घुमा कर
आत्मशूलस्य = अपने शूल को
उत्तरस्यां = उत्तर
तथा = और
ईश्वरि= हे ईश्वरी
हे चण्डिका पूर्व से, पश्चिम और पश्चिम से रक्षा करो , और हे ईश्वरी अपने त्रिशूल को घुमा कर उत्तर से हमारी रक्षा करो ।
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते ।
यानि चात्यन्तघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥ २६॥
सौम्यानि = सौम्य
यानि = जो
रूपाणि = रूप
त्रैलोक्ये = तीनों लोकों में
विचरन्ति = घूमते हैं
ते = आपके
यानि = जो
च = और
अत्यन्तघोराणि = अत्यंतर भयंकर
तै = उनसे
रक्षा
अस्मां = हमारी
तथा = और
भुवम् = संसार की
तीनों लोकों में जो तुम्हारे सौम्य और अत्यंत भयंकर रूप घुमते हैं उनसे हमारी और संसार की रक्षा करो ।
खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्रानि तेऽम्बिके ।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान्रक्ष सर्वतः ॥ २७॥
खड्ग शूल गदादीनि= खड्ग शूल गदा आदि
यानि = जो
च= और
अस्त्रानि = अस्त्र
ते = आपके
अम्बिके = हे अम्बिका
करपल्लवसङ्गीनि =कमल जैसे हाथों के संगी हैं
तै: = वे
अस्मान् रक्ष = हमारी रक्षा करे
सर्वतः= सब जगह
और हे अम्बिका खड्ग शूल गदा आदि जो अस्त्र आपके कमल जैसे हाथों के संगी हैं , वे सब जगह हमारी रक्षा करे ।
ऋषिरुवाच ॥ २८॥
ऋषि बोले ।
एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः ।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ॥ २९॥
एवं = इस प्रकार
स्तुता = स्तुति की
सुरै: = देवताओं ने
दिव्यैः = दिव्य
कुसुमै:= फूलों से
नन्दन = नंदन वन में
उद्भवैः = उत्पन्न
अर्चिता = पूजा की
जगतां धात्री = जगत की धारण करने वाली देवी की
तथा = और
गन्धान उलेपनैः = गंध चन्दन से
इस प्रकार देवताओं ने जगत की धारण करने वाली देवी की नंदन वन में उत्पन्न दिव्य फूलों से स्तुति की और गंध, चन्दन से पूजा की
भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैः सुधूपिता ।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ॥ ३०॥
भक्त्या = भक्ति से
समस्तै: = सभी
त्रिदशै: = देवताओं
दिव्यै: धूपैः =दिव्या धूपों से
सुधूपिता = आघ्रापित
प्राह = बोली
प्रसादसुमुखी = प्रसन्न मुख वाली
समस्तान् = सभी
प्रणतान् = प्रणाम करते हुए
सुरान् = देवताओं को
सभी देवताओं से दिव्या धूपों से आघ्रापित प्रसन्न मुख वाली देवी सभी प्रणाम करते हुए देवताओं को बोली ।
देव्युवाच ॥ ३१॥
देवी बोलीं ।
व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम् ॥ ३२॥
व्रियतां = कहो , मांगो
त्रिदशाः = देवताओं
सर्वे = सब
यत् = जो
अस्मत्त:= मुझसे
अभिवाञ्छितम् = अभिलाषित है
सब देवताओं जो अभिलाषित है मुझसे मांगों ।
देवा ऊचुः ॥ ३३॥
देवता बोले ।
भगवत्या कृतं सर्वं न किञ्चिदवशिष्यते ॥ ३४॥
भगवत्या = भगवती ने
कृतं = कर दिया
सर्वं = सब
न = नहीं
किञ्चिद= कुछ भी
अवशिष्यते = शेष है
भगवती ने सब कर दिया है, कुछ भी शेष नहीं है ।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ।
यदयं = जो इस
निहतः = मार दिया है
शत्रु: = शत्रु
अस्माकं = हमारे
महिषासुरः = महिसासुर को
जो हमारे इस शत्रु महिषासुर को मार दिया है ।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥ ३५॥
यदि = यदि
चापि = और भी
वरो = वर
देय = देना है
त्वया = आपके द्वारा
अस्माकं = हमें
महेश्वरि = हे माहेश्वरी
हे माहेश्वरी यदि और भी वर आपके द्वारा हमें देना है ..
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः ।
संस्मृता संस्मृता= जब जब स्मरण करें
त्वं तुम
नो = हमारी
हिंसेथाः = नाश करो
परमापदः = परम आपदाओं का
जब जब स्मरण करें तुम हमारी परम आपदाओं का नाश करो ।
यश्च मत्य।र्ः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥ ३६॥
यश्च = और जो
मत्य।र्ः = मनुष्य
स्तवै: = स्तोत्रों से
एभि = इन
त्वां = तुम्हारी
स्तोष्यति = स्तुति करता है
अमलानने = प्रसन्नमुखी
हे प्रसन्न मुखी और जो मनुष्य इन स्तोत्रों से तुम्हारी स्तुति करता है
तस्य वित्तद्धि।र्विभवैर्धनदारादिसम्पदाम् ।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ॥ ३७॥
तस्य = उसके
वित्तर्द्धि= वित्त ऋद्धि = वित्त ,समृद्धि
विभवै: = वैभव
धनदारादि = धन, पत्नी आदि
सम्पदाम् = सम्पदा में
वृद्धये = वृद्धि करो
अस्मत् = हम से
प्रसन्ना = प्रसन्न
त्वं = तुम
भवेथाः = रहो
सर्वदा = हमेशा
अम्बिके = हे अम्बिका
उसके वित्त, ऋद्धि ,धन पत्नी आदि संपत्ति में वृद्धि करो । हे अम्बिका आप हमसे हमेशा प्रसन्न रहो ।
ऋषिरुवाच ॥ ३८॥
ऋषि बोला ।
इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथात्मनः ।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ॥ ३९॥
इति = इस प्रकार
प्रसादिता = प्रसन्न किया
देवै: = देवताओं ने
जगत: = संसार
अर्थे = कल्याण के लिए
तथा आत्मनः = इसी प्रकार
तथेति= ऐसा ही हो
उक्त्वा = कह कर
भद्रकाली = भद्र काली
बभूवा= हो गयी
अन्तर्हिता = अंतर्ध्यान
नृप =हे राजा
इस प्रकार देवताओं ने संसार के तथा अपने कल्याण के लिए देवी को प्रसन्न किया । भद्र काली देवी ऐसा ही हो कह कर अंतर्ध्यान हो गयी ।
इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा ।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥ ४०॥
इत्येतत्कथितं = इति एतत कथितं = इस प्रकार ये कह दिया
भूप = हे राजा
सम्भूता = उतपन्न हुई
सा = वह
यथा = जैसे
पुरा = पूर्व काल में
देवी = देवी
देवशरीरेभ्यो = देवताओं के शरीर से
जगत्त्रय हितैषिणी = तीनों लोकों का कल्याण चाहने वाली
जिस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का कल्याण चाहने वाली देवी देवताओं के शरीर से प्रकट हुई , हे राजन इस प्रकार ये कह दिया ।
पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत् ।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ४१॥
रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी ।
पुन: च = और दुबारा
गौरीदेहात् = पार्वती के शरीर से
सा = वह
समुद्भूता = प्रकट
यथा= जिस प्रकार
अभवत् = हुई
वधाय =वध करने के लिए
दुष्टदैत्यानां = दुष्ट दैत्यों
तथा = और
शुम्भनिशुम्भयोः = शुम्भ निशुम्भ के
रक्षणाय= रक्षा के लिए
च = और
लोकानां = लोकों की
देवानाम उपकारिणी = देवताओं का उपकार करने वाली
और दुबारा दुष्ट दैत्यों और शुम्भ निशुम्भ का वध करने के लिए और लोकों की रक्षा के लिए, देवताओं का उपकार करने वाली वह, पार्वती के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई
तच्छृणुष्व मयाख्यातं यथावत्कथयामि ते ॥ ४२॥
तत् = वह
शृणुष्व= सुनो
मया अख्यातं = मेरे द्वारा कहा गया
यथावत् = यथावत (जैसा घटित हुआ वैसा )
कथयामि = कहता हूँ , वर्णन करता हूँ
ते= तुम्हें
मेरे द्वारा कहा गया वह सुनो , तुम्हें यथावत् कहता हूँ ।
। ह्रीं ॐ ।
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे
देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरुढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः।।
ॐ
कालाभ्राभां = काल अभ्र आभाम् = काले बादल की आभा वाली
कटाक्षै: अरिकुलभयदां = कटाक्षों से शत्रुओं को भय देने वाली
मौलिबद्ध इन्दुरेखां = मस्तक पर बंधी चन्द्रमा की रेखा वाली
शंखं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि = शंख, चक्र कृपाण और त्रिशूल
करै: उद्वहन्तीं = हाथ में धारण करने वाली
त्रिनेत्राम्= तीन नेत्रों वाली
सिंहस्कन्धाधिरुढां = सिंह के कंधे पर बैठी
त्रिभुवनम अखिलं = सभी तीनों लोकों को
तेजसा = तेज से
पूरयन्तीं = भरने वाली
ध्यायेद् = ध्यान करें
दुर्गां = दुर्गा का
जयाख्यां = जया कही जाने वाली
त्रिदशपरिवृतां = देवताओं से घिरी
सेवितां = सेवित
सिद्धिकामैः= सिद्धि की इच्छा रखने वालों द्वारा
काले बादल की आभा वाली ,कटाक्षों से शत्रुओं को भय देने वाली , मस्तक पर बंधी चन्द्रमा की रेखा वाली ,शंख, चक्र कृपाण और त्रिशूल हाथ में धारण करने वाली , तीन नेत्रों वाली ,सिंह के कंधे पर बैठी, सभी तीनों लोकों को तेज से भरने वाली , सिद्धि की इच्छा रखने वालों द्वारा सेवित , देवताओं से घिरी, जया कही जाने वाली दुर्गा देवी का ध्यान करें ।
ॐ ऋषिरुवाच ॥ १॥
ऋषि बोले ।
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या ।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः ॥ २॥
शक्रादयः = इंद्र की अगवाई में
सुरगणाः = सुरगण
निहते = मारे जाने पर
अतिवीर्ये = अत्यंत पराक्रमी
तस्मिन् = उसके
दुरात्मनि =दुष्ट
सुरारिबले= सुर अरि बले =देवताओं के दुश्मन यानी असुरों की सेना
च = और
देव्या = देवी द्वारा
तां = उस
तुष्टुवुः = प्रशंसा की
प्रणतिनम्रशिरोधरांसाः=प्रणति,प्रणाम | नम्र, झुकेहुए | शिरः= सर , धर bearing, अंसाः= कंधे
वग्भिः = शब्दों द्वारा
प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः=प्रहर्ष, बहुत खुश , पुलक, रोएँ उठना , उद्गम, प्रकट होना , चारु, सुन्दर ,देहाः =शरीर
देवी द्वारा अत्यंत बलि दुष्ट उस (महिषासुर) और असुरसेना के मारे जाने पर इंद्र की अगवाई में प्रणाम के लिए झुके हुए गर्दन और कंधे और ख़ुशी से पुलकित सुन्दर देह वाले सुरगण उत्तम वचनों द्वारा उस देवी का स्तवन करने लगे ।
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निःशेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या ।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ ३॥
देव्या = देवी
यया = जिनकी
ततमिदं = ततम् = व्याप्त है, फैला है
इदं = ये
जगदात्मशक्त्या जगत = संसार
आत्म शक्ति = आत्म शक्ति से
निःशेष = सभी
देवगण = देवगणों की
शक्तिसमूह शक्ति समूह की
मूर्त्या = मूर्ति है
तामम्बिकाम = उस अम्बिका को
अखिल = सारे
देवमहर्षि - देव ऋषियों द्वारा पूज्य
पूज्यां = पूज्य
भक्त्या = भक्ति पूर्वक
नताः स्म = हम नमन करते हैं
विदधातु = करे
शुभानि = कल्याण
सा नः वह हमारा
देवी जिनकी आत्मशक्ति से ये संसार व्याप्त है , जो सभी देवताओं की शक्ति समूह की मूर्ति है, सारे देव ऋषियों द्वारा पूज्य उस अम्बिका को हम नमन करते हैं , वह हमारा कल्याण करें ।
यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तुमलं बलं च ।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु ॥ ४॥
यस्याः = जिसका
प्रभावम् = प्रभाव
अतुलम् = अतुलनीय
भगवान् = भगवान
अनन्तः = विष्णु
ब्रह्मा = ब्रह्मा
हरः = शिव
च न हि = और न ही
वक्तुम् = बताना , कहना
अलं = योग्य
बलं च = बल
सा = वह
चण्डिका = चण्डिका देवी
अखिलजगत्परिपालनाय = सारे जगत के पालन की
नाशाय च= और नाश की
अशुभचयस्य अशुभ भयस्य = अशुभ का भय
मतिं करोतु = सोचे ,
जिसके प्रभाव और बल को भगवान विष्णु, ब्रह्मा और न ही शिव बताने में समर्थ हैं , वह चण्डिका देवी सारे जगत के पालन और सभी अशुभ भय के नाश की मति करे या सोचे ।
या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः ।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ॥ ५॥
या = जो
श्रीः = लक्ष्मी
स्वयं = खुद
सुकृतिनां = अच्छे लोगों के
भवनेषु, = घर में
अलक्ष्मीः = अलक्ष्मी (दरिद्रता )
पापात्मनाम्, = पापियों के
कृतधियां = = विवेकी ,परिष्कृत मन वाले
हृदयेषु = हृदय में
बुद्धिः, = बुद्धि
श्रद्धा = श्रद्धा
सतां = संतों के
हृदि, = मन में
कुलजनप्रभवस्य = कुलीन लोगों के
लज्जा,= लज्जा
तां = उन
त्वां = आप
नताः स्म, = प्रणाम करते हैं
परिपालय देवि विश्वम् = देवी विश्व का पालन करो
जो स्वयं अच्छे लोगों के घर में लक्ष्मी , पापियों के घर में दरिद्रता , सत्पुरुषों के हृदय में श्रद्धा के रूप में है उन आप भगवती को हम प्रणाम करते हैं , हे देवी विश्व का पालन करिये ।
किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किञ्चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि ।
किं चाहवेषु चरितानि तवाति यानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ॥ ६॥
किं = क्या
वर्णयाम्= वर्णन हो सकता है
तव = तुम्हारे
रूपमचिन्त्यम् एतत् = इस अचिन्तय रूप का
किं= क्या
च = और
अतिवीर्यम् = अत्यंत पराक्रम का
असुरक्षयकारि= असुरों का विनाश करने वाले
भूरि = अधिक , महान
किं = क्या
च= और
आहवेषु = चुनौती, युद्ध में
चरितानि =चरित्र है
तव अति = तुम्हारे अत्यंत
यानि= जो , ऐसा
सर्वेषु = सभी
देव्य = देवी = हे देवी
असुरदेवगणादिकेषु = असुरों , देवताओं आदि में, पर
तुम्हारे इस अचिन्तय रूप का और महान असुरों का विनाश करने वाले अत्यंत पराक्रम का और युद्ध में सभी असुरों, देवताओं आदि में जो तुम्हारे अत्यंत चरित्र है उनका क्या वर्णन हो सकता है ।
हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषै-
र्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा ।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ॥ ७॥
हेतुः = कारण
समस्तजगतां = सारे जगत का
त्रिगुणापि = त्रिगुणी हो कर भी
दोषै: = दोष
न = नहीं
ज्ञायसे = दीखता
हरिहरादिभि:= विष्णु , शिव आदि देवता भी
अपि= भी
अपारा = जिसका पार नहीं पा सकते
सर्व आश्रया = सब का आश्रय
अखिलमिदं = यह सारा
जगदंशभूतम् = जगत आपका ही अंशभूत है
अव्याकृता= अव्याकृता
हि = निश्चित ही
परमा = परम
प्रकृति:= प्रकृति
तवं =तुम
आद्या = आदिभूत
हे देवी तुम सारे जगत का (उत्पत्ति का ) कारण हो , त्रिगुणी(सत्व, राज, तम) हो कर भी दोष नहीं दीखता, विष्णु , शिव आदि देवता भी जिसका पार नहीं पा सकते , यह सारा जगत आपका ही अंशभूत है । तुम निश्चित ही आदिभूत अव्याकृता ,परम प्रकृति हो ।
यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि ।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ॥ ८॥
यस्याः = जिसके
समस्तसुरता = सभी देवता
समुदीरणेन= उच्चारण से
तृप्तिं = तृप्ति
प्रयाति = प्राप्त करते हैं
सकलेषु= सभी
मखेषु = यज्ञों में
देवि = हे देवी
स्वाहासि = स्वाहा
वै = निश्चित रूप से
पितृगणस्य= पितृगणों की
च = और
तृप्तिहेतु: = तृप्ति के लिए
उच्चार्यसे = उच्चारित
त्वमत एव = तुम ही हो
जनैः = लोग
स्वधा च= और स्वधा
सभी यज्ञों में सारे देवता जिस के उच्चारण से तृप्ति प्राप्त करते हैं वह स्वाहा और पितृगणों की तृप्ति के लिए उच्चारित स्वधा हे देवी निश्चित रूप से आप ही हैं ।
या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्वं
अभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः ।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ॥ ९॥
या = जिसका
मुक्तिहेतु: = मोक्ष प्राप्ति का साधन
अविचिन्त्यमहाव्रता = अचिन्त्य महाव्रत स्वरूपा
त्वं = तुम हो
अभ्यस्यसे = अभ्यास करते हैं
सुनियतेन्द्रिय = जितेन्द्रिय
तत्त्वसारैः = तत्व को ही सार वस्तु मानने वाले
मोक्षार्थिभि: = मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले
मुनिभि: = मुनिजन
अस्त समस्तदोषै=सारे दोषों से रहित
विद्या असि = विद्या हैं
सा = वह
भगवती= भगवती
परमा = परा
हि देवि= और हे देवी
और हे देवी सारे दोषों से रहित, जितेन्द्रिय, तत्व को ही सार वस्तु मानने वाले, मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह मोक्ष प्राप्ति का साधन, अचिन्त्य, महाव्रत स्वरूपा, परा विद्या भगवती आप हैं ।
शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषाम् निधान-
मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् ।
देवि त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥ १०॥
शब्दात्मिका = शब्दों की आत्मा
सुविमलर्ग्यजुषाम् सुविमल ऋग् यजुषाम् = अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद
निधानम् = निधि, खजाना
उद्गीथ रम्यपद पाठवतां = उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों
च = और
साम्नाम् = सामवेद
देवि = देवी
त्रयी = त्रयी (तीनों वेद )
भगवती = भगवती हैं
भवभावनाय = संसार के पालन के लिए
वार्ता = वार्ता (खेती और आजीविका )
च = और
सर्वजगतां = सारे संसार की
परम आर्तिहन्त्री= पीड़ाओं को हरने वाली
हे देवी आप अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद के शब्दों की आत्मा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों और सामवेद का खज़ाना ,संसार के पालन के लिए वार्ता (खेती और आजीविका ), सारे संसार की पीड़ाओं को हरने वाली त्रयी (तीनों वेद ), भगवती हैं ।
मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्गा ।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा ॥ ११॥
मेधासि = मेधा (बुद्धि) शक्ति हैं
देवि = हे देवी
विदित अखिल शास्त्र सारा= सारे शास्त्रों के सार का ज्ञान कराने वाली
दुर्गासि = दुर्गा
दुर्ग भव सागर नौ: असङ्गा = दुर्गम भव सागर से पार उतारने वाली नौका रूप
श्रीः = लक्ष्मी
कैटभारि= कैटभ के दुश्मन विष्णु के
हृदयैककृताधिवासा= हृदय में एक मात्र निवास करने वाली
गौरी = पार्वती
त्वमेव = तुम ही
शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा = शिव द्वारा सम्मानित
हे देवी सारे शास्त्रों के सार का ज्ञान कराने वाली मेधा (बुद्धि) शक्ति , दुर्गम भव सागर से पार उतारने वाली नौका रूप दुर्गा , कैटभ के दुश्मन विष्णु के हृदय में एक मात्र निवास करने वाली लक्ष्मी , शिव द्वारा सम्मानित पार्वती तुम ही हो ।
ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम् ।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ॥ १२॥
ईषत् = मंद , धीमी
सहासम् = हंसी से
अमलं = सुन्दर
परिपूर्णचन्द्र= पूरे चन्द्रमा के
बिम्बानुकारि = बिम्ब का अनुकरण करने वाला
कनकोत्तम कान्ति कान्तम् = शुद्ध सोने की चमक जैसा कांतिमय
अत्यद्भुतं = अत्यंत आश्चर्यजनक है
प्रहृतम्= प्रहार किया गया
आत्तरुषा = क्रोध में
तथापि = तो भी
वक्त्रं = मुख
विलोक्य = देख कर
सहसा = अचानक
महिषासुरेण = महिसासुर द्वारा
धीमी हंसी से सुन्दर पूरे चन्द्रमा के बिम्ब का अनुकरण करने वाला शुद्ध सोने की चमक जैसा कांतिमय मुख देख कर भी महिसासुर द्वारा सहसा प्रहार किया गया , अत्यंत आश्चर्यजनक है ।
दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः ।
प्राणान् मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन ॥ १३॥
दृष्ट्वा = देख कर
तु = और
देवि = देवी
कुपितं = क्रोध से
भ्रुकुटीकरालम् = भयानक भौहों वाले
उद्यत् शशाङ्क सदृशच्छवि = उदित होते चन्द्रमा के सामान लाल छवि को
यन्न = यत् न = जो नहीं
सद्यः= तुरंत
प्राणान् = प्राणों को
मुमोच = छोड़ दिया
महिष: = महिषासुर
तत् अतीव = वह अत्यंत
चित्रं = विचित्र है
कैर्जीव्यते = कौन जीत रह सकता है
हि =क्यूंकि
कुपिता = क्रोधित
अन्तक = यम को
दर्शनेन = देख कर
और देवी क्रोध से भयानक भौहों वाले उदित होते चन्द्रमा के सामान लाल छवि को देख कर जो महिषासुर ने तुरंत प्राण नहीं छोड़ दिए वह अत्यंत विचित्र है क्यूंकि क्रोधित यम को देखकर कौन जीवित रह सकता है ।
देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि ।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य ॥ १४॥
देवि = देवी
प्रसीद = प्रसन्न हो जाओ
परमा = परमात्मस्वरूप
भवती = आप
भवाय = कल्याण के लिए
सद्यो = तुरंत
विनाशयसि = नष्ट कर देती हो
कोपवती = क्रोधित होने पर
कुलानि =कुलों को
विज्ञातम् = ज्ञात हुआ है
एतत् = ये
अधुनैव = अभी ही
यत् = जो
अस्तम्= नष्ट
एतत् = ये
नीतं = कर दी है
बलं = सेना
सुविपुलं = विशाल
महिषासुरस्य= महिषासुर की
हे परमात्मस्वरूपा देवी हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न हो जाओ । आप क्रोधित होने पर कुलों को नष्ट कर देती हो , ये अभी ही ज्ञात हुआ है जो आपने महिषासुर की विशाल सेना को तुरंत नष्ट कर दिया है ।
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति बन्धुवर्गः ।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना ॥ १५॥
ते = वे
सम्मता = सम्मानित होते हैं
जनपदेषु = देश में
धनानि = धन , संपत्ति
तेषां = उनका
तेषां = उनका
यशांसि = यश
न = नहीं
च = और
सीदति = कमज़ोर , शिथिल
धर्मवर्गः= धरम कुल
धन्यास्त = धन्य वे
एव = ही
निभृत= विनीत , शीलयुक्त
आत्मज= संतान
भृत्य= नौकर
दारा= पत्नी
येषां = जिन पर
सदा अभ्युदयदा = हमेशा सौभाग्य देने वाली
भवती = आप
प्रसन्ना= प्रसन्न होती हैं
हमेशा सौभाग्य देने वाली आप जिन पर प्रसन्न होती हैं वे देश में सम्मानि होते हैं , उनका धन उनकी संपत्ति और धरम कुल शिथिल नहीं होता । विनीत संतान , नौकर और पत्नी से वे धन्य होते हैं ।
धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति ।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन ॥ १६॥
धर्म्याणि = धरम के
देवि = हे देवी
सकलानि = सभी
सदैव = हमेशा
कर्माणि = कर्म
अति = अत्यंत
आदृतः = सावधानी से
प्रतिदिनं = प्रतिदिन
सुकृती = अच्छे कर्मकरने वाले, पुण्यात्मा
करोति = करते हैं
स्वर्गं = स्वर्ग
प्रयाति = प्राप्त करते हैं
च = और
ततो = तब
भवती = आपकी
प्रसादात् = कृपा से
लोकत्रयेऽपि = तीनों लोकों में भी
फलदा = फल देने वाली हैं
ननु = निश्चय ही
देवि = देवी
तेन = इस प्रकार
आपकी कृपा से पुण्यात्मा हमेशा सावधानी से प्रतिदिन धरम के सभी काम करते हैं और तब स्वर्ग प्राप्त करते हैं । इस प्रकार हे देवी आप निश्चय ही तीनों लोकों के भी फल देने वाली हैं ।
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाद्र।र्चित्ता ॥ १७॥
दुर्गे = कठिन समय में
स्मृता = स्मरण करने पर
हरसि = हरती हो
भीतिम = भय को
अशेषजन्तोः = सभी प्राणियों का
स्वस्थैः = अच्छे समय में
स्मृता = स्मरण करने पर
मतिम्= बुद्धि
अतीव = अत्यंत
शुभां = शुभ
ददासि = देती हो
दारिद्रदुःखभयहारिणि = गरीबी , दुःख , भय को हरने वाली
का = कौन
त्वत् अन्य = तुम्हारे सिवा
सर्व उपकारकरणाय = सब का उपकार करने के लिए
सदा = हमेशा
आद्र = दया से भीगा , नम
चिता = मन
गरीबी , दुःख , भय को हरने वाली देवी कठिन समय में स्मरण करने पर सभी प्राणियों के भय को हरती हो । अच्छे समय में स्मरण करने पर अत्यंत शुभ बुद्धि देती हो । तुम्हारे सिवा कौन है जिसका मन सब का उपकार करने के लिए हमेशा दयाद्र रहता है ।
एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम् ।
सङ्ग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि ॥ १८॥
एभि:= इन (राक्षसों) को
हतै: = मार कर
जगदुपैति = जगत उपैति = संसार को पहुंचे
सुखं = सुख
तथैते= तथा एते = और ये (राक्षस )
कुर्वन्तु = किये हैं
नरकाय नाम = नरक के लिए
चिराय = देर तक
पापम् =पाप
सङ्ग्राममृत्युम अधिगम्य = संग्राम में मृत्यु प्राप्त करके
दिवं = स्वर्ग
प्रयान्तु = प्राप्त करें
मत्वेति मति इति = इसप्रकार सोच कर
नूनम् = निश्चय ही
अहितान् = शत्रुओं को
विनिहंसि = नष्ट किया है , मारा है
देवि = हे देवी
इन (राक्षसों) को मार कर संसार को सुख पहुंचे और ये (राक्षस ) (जिन्होंने ) नरक के लिए देर तक पाप किये हैं संग्राम में मृत्यु प्राप्त करके स्वर्ग प्राप्त करें, हे देवी निश्चय ही इस प्रकार सोच कर आपने शत्रुओं को मारा है ।
दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम् ।
लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वहितेषुसाध्वी ॥ १९॥
दृष्ट्वैव = देख कर ही
किं = क्यों
न =नहीं
भवती = आप
प्रकरोति = कर देती
भस्म= भस्म , राख
सर्वासुरानरिषु = सभी असुरों को
यत्प्रहिणोषि = जो प्रहार करती हैं , फेंकती हैं
शस्त्रम् = शस्त्रों को
लोकान् प्रयान्तु = स्वर्ग लोक प्राप्त करें
रिपवोऽपि = शत्रु भी
हि = निश्चय ही
शस्त्रपूता = शस्त्र से पवित्र हो
इत्थं = ऐसी
मति: भवति= सोच होती हैं
तेष्वहितेषु = उनके हित में
साध्वी = अच्छी
आप सभी असुरों को देख कर ही भस्म क्यों नहीं कर देती जो शास्त्रों से प्रहार करती हैं । निश्चय ही शस्त्र से पवित्र हो शत्रु भी स्वर्ग लोक प्राप्त करें ऐसी उनके हित में अच्छी सोच होती हैं ।
खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम् ।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत् ॥ २०॥
खड्ग = तलवार से
प्रभा = चमक , रौशनी के
निकर = समूह से
विस्फुरणै:= . कौंधना। (बिजली का)
तथा = और
उग्रैः= तीक्ष्ण
शूलाग्र = त्रिशूल की नोक के
कान्ति = प्रकाश
निवहेन = ढेर , पुंज
दृशो असुराणाम् = असुरों की दृष्टि
यत न आगता = जो नहीं हुई
विलयम् = नष्ट
अन्शुमत् = प्रभायुक्त
इन्दुखण्ड-योग्य = चाँद के टुकड़े जैसे
आननं = मुख को
तव = तम्हारा
विलोकयतां = देख रहे होंगे
तत् = तब
एतत् = इस
रौशनी के समूह से कौंधती तलवार से तीक्ष्ण त्रिशूल की नोक के प्रकाश पुंज से जो असुरों की दृष्टि नष्ट नहीं हुई (क्यूँकि वे ) तब इस प्रभायुक्त चाँद के टुकड़े जैसे मुख को देख रहे होंगे ।
दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः ।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ॥ २१॥
दुर्वृत्त = दुराचारियों के
वृत्तशमनं= बुरे व्यवहार को दूर करने वाला है
तव = तुम्हारा
देवि = हे देवी
शीलं = शील
रूपं = रूप
तथा एतत = और यह
अविचिन्त्यम् = चिंतन से परे
अतुल्यम अन्यैः = दूसरों से तुलना से पर है
वीर्यं = पराक्रम
च = और
हन्तृ = नष्ट करने वाला है
हृतदेवपराक्रमाणां = देवताओं के पराक्रम को नष्ट करने वालों को
वैरिष्वपि = शत्रुओं पर भी
प्रकटिते = दिखाई है
एव = ही
दया = दया
त्वयि = तुम्हारे द्वारा
इत्थम् = इस प्रकार
हे देवी तुम्हारा शील दुराचारियों के बुरे व्यवहार को दूर करने वाला है और ये रूप चिंतन से परे और दूसरों से तुलना से पर है, और पराक्रम देवताओं के पराक्रम को नष्ट करने वालों को नष्ट करने वाला है । इस प्रकार शत्रुओं पर भी तुम्हारे द्वारा दया ही दिखाई गयी है ।
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र ।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि ॥ २२॥
केन = क्या
उपमा = तुलना
भवतु = होगी
ते अस्य = आपके इस
पराक्रमस्य = पराक्रम की
रूपं = रूप
च = और
शत्रु भयकार्य= शत्रुओं में भय करने वाला
अतिहारि = अत्यंत मनोहर
कुत्र= कहाँ होगा
चित्ते = मन में
कृपा = दया
समरनिष्ठुरता = युद्ध में निष्ठुरता
च = और
दृष्टा = देखी है
त्वय्येव = तुम में ही
देवि = हे देवी
वरदे = वरदान देने वाली
भुवनत्रये अपि = तीनों लोकों में भी
हे वरदान देने वाली देवी आपके इस पराक्रम की क्या तुलना होगी और शत्रुओं में भय करने वाला अत्यंत मनोहर कहाँ होगा । मन में दया और युद्ध में निष्ठुरता भी तीनों लोकों में तुम में ही देखी है ।
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा ।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तम्
अस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते ॥ २३॥
त्रैलोक्यम एतत अखिलं = इस सारे त्रिलोक की
रिपुनाशनेन्= शत्रुओं के नाश से
त्रातं = रक्षा की है
त्वया = तुमने
समरमूर्धनि = युद्ध भूमि में
तेऽपि = उनको भी
हत्वा = मार कर
नीता = प्राप्त करवाया है
दिवं = स्वर्ग
रिपुगणा = शत्रुओं को
भयं अपि = भय को भी
अपास्तम् = दूर किया है
अस्माकम्= हमारे
उन्मत् असुरारि = उन्मत असुरों से
अभवन् = हुए
नमस्ते = आपको नमस्कार है ।
शत्रुओं के नाश से इस सारे त्रिलोक की रक्षा की है । युद्ध भूमि में उन शत्रुओं को मार कर स्वर्ग प्राप्त कराया है । उन्मत असुरों से हुए हमारे भय को भी दूर किया है । आपको नमस्कार है ।
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके ।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च ॥ २४॥
शूलेन = शूल से
पाहि = रक्षा करो
नो = हमारे
देवि = हे देवी
पाहि = रक्षा करो
खड्गेन = तलवार से
च = और
अम्बिके= अम्बिका
घण्टास्वनेन = घंटे की आवाज़ से
नः =हमारी
पाहि = रक्षा करो
चापज्यानिःस्वनेन = धनुष की टंकार से
च = और
हे देवी शूल से हमारी रक्षा करो , और अम्बिका तलवार से और घंटे की आवाज़ से और धनुष की टंकार से हमारी रक्षा करो ।
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे ।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ॥ २५॥
प्राच्यां = पूर्व से
रक्ष = रक्षा करें
प्रतीच्यां = पश्चिम
च = और
चण्डिके = चण्डिका
रक्ष = रक्षा करो
दक्षिणे = दक्षिण से
भ्रामणेन= घुमा कर
आत्मशूलस्य = अपने शूल को
उत्तरस्यां = उत्तर
तथा = और
ईश्वरि= हे ईश्वरी
हे चण्डिका पूर्व से, पश्चिम और पश्चिम से रक्षा करो , और हे ईश्वरी अपने त्रिशूल को घुमा कर उत्तर से हमारी रक्षा करो ।
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते ।
यानि चात्यन्तघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ॥ २६॥
सौम्यानि = सौम्य
यानि = जो
रूपाणि = रूप
त्रैलोक्ये = तीनों लोकों में
विचरन्ति = घूमते हैं
ते = आपके
यानि = जो
च = और
अत्यन्तघोराणि = अत्यंतर भयंकर
तै = उनसे
रक्षा
अस्मां = हमारी
तथा = और
भुवम् = संसार की
तीनों लोकों में जो तुम्हारे सौम्य और अत्यंत भयंकर रूप घुमते हैं उनसे हमारी और संसार की रक्षा करो ।
खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्रानि तेऽम्बिके ।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान्रक्ष सर्वतः ॥ २७॥
खड्ग शूल गदादीनि= खड्ग शूल गदा आदि
यानि = जो
च= और
अस्त्रानि = अस्त्र
ते = आपके
अम्बिके = हे अम्बिका
करपल्लवसङ्गीनि =कमल जैसे हाथों के संगी हैं
तै: = वे
अस्मान् रक्ष = हमारी रक्षा करे
सर्वतः= सब जगह
और हे अम्बिका खड्ग शूल गदा आदि जो अस्त्र आपके कमल जैसे हाथों के संगी हैं , वे सब जगह हमारी रक्षा करे ।
ऋषिरुवाच ॥ २८॥
ऋषि बोले ।
एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः ।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः ॥ २९॥
एवं = इस प्रकार
स्तुता = स्तुति की
सुरै: = देवताओं ने
दिव्यैः = दिव्य
कुसुमै:= फूलों से
नन्दन = नंदन वन में
उद्भवैः = उत्पन्न
अर्चिता = पूजा की
जगतां धात्री = जगत की धारण करने वाली देवी की
तथा = और
गन्धान उलेपनैः = गंध चन्दन से
इस प्रकार देवताओं ने जगत की धारण करने वाली देवी की नंदन वन में उत्पन्न दिव्य फूलों से स्तुति की और गंध, चन्दन से पूजा की
भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैः सुधूपिता ।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान् ॥ ३०॥
भक्त्या = भक्ति से
समस्तै: = सभी
त्रिदशै: = देवताओं
दिव्यै: धूपैः =दिव्या धूपों से
सुधूपिता = आघ्रापित
प्राह = बोली
प्रसादसुमुखी = प्रसन्न मुख वाली
समस्तान् = सभी
प्रणतान् = प्रणाम करते हुए
सुरान् = देवताओं को
सभी देवताओं से दिव्या धूपों से आघ्रापित प्रसन्न मुख वाली देवी सभी प्रणाम करते हुए देवताओं को बोली ।
देव्युवाच ॥ ३१॥
देवी बोलीं ।
व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम् ॥ ३२॥
व्रियतां = कहो , मांगो
त्रिदशाः = देवताओं
सर्वे = सब
यत् = जो
अस्मत्त:= मुझसे
अभिवाञ्छितम् = अभिलाषित है
सब देवताओं जो अभिलाषित है मुझसे मांगों ।
देवा ऊचुः ॥ ३३॥
देवता बोले ।
भगवत्या कृतं सर्वं न किञ्चिदवशिष्यते ॥ ३४॥
भगवत्या = भगवती ने
कृतं = कर दिया
सर्वं = सब
न = नहीं
किञ्चिद= कुछ भी
अवशिष्यते = शेष है
भगवती ने सब कर दिया है, कुछ भी शेष नहीं है ।
यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः ।
यदयं = जो इस
निहतः = मार दिया है
शत्रु: = शत्रु
अस्माकं = हमारे
महिषासुरः = महिसासुर को
जो हमारे इस शत्रु महिषासुर को मार दिया है ।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि ॥ ३५॥
यदि = यदि
चापि = और भी
वरो = वर
देय = देना है
त्वया = आपके द्वारा
अस्माकं = हमें
महेश्वरि = हे माहेश्वरी
हे माहेश्वरी यदि और भी वर आपके द्वारा हमें देना है ..
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः ।
संस्मृता संस्मृता= जब जब स्मरण करें
त्वं तुम
नो = हमारी
हिंसेथाः = नाश करो
परमापदः = परम आपदाओं का
जब जब स्मरण करें तुम हमारी परम आपदाओं का नाश करो ।
यश्च मत्य।र्ः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ॥ ३६॥
यश्च = और जो
मत्य।र्ः = मनुष्य
स्तवै: = स्तोत्रों से
एभि = इन
त्वां = तुम्हारी
स्तोष्यति = स्तुति करता है
अमलानने = प्रसन्नमुखी
हे प्रसन्न मुखी और जो मनुष्य इन स्तोत्रों से तुम्हारी स्तुति करता है
तस्य वित्तद्धि।र्विभवैर्धनदारादिसम्पदाम् ।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके ॥ ३७॥
तस्य = उसके
वित्तर्द्धि= वित्त ऋद्धि = वित्त ,समृद्धि
विभवै: = वैभव
धनदारादि = धन, पत्नी आदि
सम्पदाम् = सम्पदा में
वृद्धये = वृद्धि करो
अस्मत् = हम से
प्रसन्ना = प्रसन्न
त्वं = तुम
भवेथाः = रहो
सर्वदा = हमेशा
अम्बिके = हे अम्बिका
उसके वित्त, ऋद्धि ,धन पत्नी आदि संपत्ति में वृद्धि करो । हे अम्बिका आप हमसे हमेशा प्रसन्न रहो ।
ऋषिरुवाच ॥ ३८॥
ऋषि बोला ।
इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथात्मनः ।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ॥ ३९॥
इति = इस प्रकार
प्रसादिता = प्रसन्न किया
देवै: = देवताओं ने
जगत: = संसार
अर्थे = कल्याण के लिए
तथा आत्मनः = इसी प्रकार
तथेति= ऐसा ही हो
उक्त्वा = कह कर
भद्रकाली = भद्र काली
बभूवा= हो गयी
अन्तर्हिता = अंतर्ध्यान
नृप =हे राजा
इस प्रकार देवताओं ने संसार के तथा अपने कल्याण के लिए देवी को प्रसन्न किया । भद्र काली देवी ऐसा ही हो कह कर अंतर्ध्यान हो गयी ।
इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा ।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी ॥ ४०॥
इत्येतत्कथितं = इति एतत कथितं = इस प्रकार ये कह दिया
भूप = हे राजा
सम्भूता = उतपन्न हुई
सा = वह
यथा = जैसे
पुरा = पूर्व काल में
देवी = देवी
देवशरीरेभ्यो = देवताओं के शरीर से
जगत्त्रय हितैषिणी = तीनों लोकों का कल्याण चाहने वाली
जिस प्रकार पूर्वकाल में तीनों लोकों का कल्याण चाहने वाली देवी देवताओं के शरीर से प्रकट हुई , हे राजन इस प्रकार ये कह दिया ।
पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्भूता यथाभवत् ।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ४१॥
रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी ।
पुन: च = और दुबारा
गौरीदेहात् = पार्वती के शरीर से
सा = वह
समुद्भूता = प्रकट
यथा= जिस प्रकार
अभवत् = हुई
वधाय =वध करने के लिए
दुष्टदैत्यानां = दुष्ट दैत्यों
तथा = और
शुम्भनिशुम्भयोः = शुम्भ निशुम्भ के
रक्षणाय= रक्षा के लिए
च = और
लोकानां = लोकों की
देवानाम उपकारिणी = देवताओं का उपकार करने वाली
और दुबारा दुष्ट दैत्यों और शुम्भ निशुम्भ का वध करने के लिए और लोकों की रक्षा के लिए, देवताओं का उपकार करने वाली वह, पार्वती के शरीर से जिस प्रकार प्रकट हुई
तच्छृणुष्व मयाख्यातं यथावत्कथयामि ते ॥ ४२॥
तत् = वह
शृणुष्व= सुनो
मया अख्यातं = मेरे द्वारा कहा गया
यथावत् = यथावत (जैसा घटित हुआ वैसा )
कथयामि = कहता हूँ , वर्णन करता हूँ
ते= तुम्हें
मेरे द्वारा कहा गया वह सुनो , तुम्हें यथावत् कहता हूँ ।
। ह्रीं ॐ ।
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे
देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
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