Tuesday, March 24, 2015

॥ अथ अर्गलास्तोत्रम् ॥

ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुरृषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

ॐ नमश्चण्डिकायै ।

ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है । 

मार्कण्डेय उवाच ॥ 

मार्कण्डेय  बोला । 

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २॥

जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आपको नमस्कार है । 

मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३॥

मधुकैटभ विद्रावि =मधु कैटभ को पराजित करने वाली 
विधातृ वरदे = ब्रह्मा को वरदान देने वाली 
नमः = नमस्कार है 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


मधु कैटभ को पराजित करने वाली ,  ब्रह्मा को वरदान देने वाली देवी  नमस्कार है आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४॥

महिषासुर निर्नाशि = महिषासुर का नाश करने वाली , 
भक्तानां सुखदे = भक्तों को सुख देने वाली 
नमः = नमस्कार है 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


महिषासुर का नाश करने वाली , भक्तों को सुख देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 



रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

रक्तबीज वधे= रक्तबीज का वध करने वाली 
देवि = देवी 
चण्डमुण्ड विनाशिनी = चण्ड मुंड का विनाश करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


रक्तबीज का वध करने वाली  , चण्ड मुंड का विनाश करने वाली देवी आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 



शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६

शुम्भस्य= शुम्भ का 
एव = और, भी  
निशुम्भस्य = निशुम्भ का 
धूम्राक्षस्य = धूम्राक्ष का 
च = और 
मर्दिनि=मर्दन करने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


शुम्भ का और निशुंभ और धूम्राक्ष का भी मर्दन करने वाली आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।


वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ॥ 

वन्दिता = वन्दनीय 
अङ्घ्रि युगे  = युगल चरणों वाली 
देवि = देवी 
सर्व सौभाग्य दायिनि = सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


युगल चरणों वाली, सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली वन्दनीय देवी  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥  ८ 

अचिन्त्यरूपचरिते = अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली 
सर्वशत्रुविनाशिनि= सब शत्रुओं का विनाश करने वाली 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली ,सब शत्रुओं का विनाश करने वाली देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ 

नतेभ्यः = नत होने वालों को  
सर्वदा = हमेशा 
भक्त्या = भक्ति से 
चण्डिके =चण्डिका देवी 
दुरितापहे = पापों को दूर करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


पापों को दूर करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्ति से नत होने वालों को आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १० ॥


स्तुवद्भ्यो = स्तुति करने वालों को 
भक्तिपूर्वं = भक्तिपूर्वक 
त्वां = तुम्हारी 
चण्डिके = चण्डिका 
व्याधिनाशिनि = रोगों का नाश करने वाली 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


रोगों का नाश करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करने वालों को  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः  ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११

चण्डिके = चण्डिका 
सततं = हमेशा 
ये = जो 
तवं अर्चयन्तीह = तुम्हारी पूजा करते हैं 
भक्तितः = भक्तिपूर्वक 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे चण्डिका जो तुम्हारी हमेशा भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं उन्हें  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥

देहि = दो 
सौभाग्यम् = सौभाग्य 
आरोग्यं = निरोगता 
 देहि= दो 
 देवि = हे देवी 
परं सुखम् = परम सुख 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे देवी सौभग्य और आरोग्य दो , परम सुख दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।


विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥

विधेहि= प्रदान करो 
द्विषतां = द्वेष रखने वालों को 
नाशं = नाश 
विधेहि = प्रदान करो
बलमुच्चकैः = महान बल दो 

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


द्वेष रखने वालों को नाश प्रदान करो , मुझे महान बल दो  ,  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 


विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमाम् श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४  ॥

विधेहि= प्रदान करो 
 देवि = हे देवी 
 कल्याणं = कल्याण 
विधेहि = प्रदान करो
 परमाम् = उत्तम 
 श्रियम् = संपत्ति 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे देवी कल्याण करो , उत्तम संपत्ति दो ,  रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 


सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५ ॥

सुरासुर= सुर असुर 
शिरोरत्न = सिर के (मुकुट के ) रत्नों को 
निघृष्ट= घिसते हैं 
चरणे =चरणों  में 
अम्बिके = हे अम्बिका 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हे अम्बिका सुर ,असुर आपके चरणों में  सिर के (मुकुट के ) रत्नों को घिसते हैं  ,  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥

विद्यावन्तं = विद्वान 
यशस्वन्तं = यशस्वी 
लक्ष्मीवन्तञ्च = लक्ष्मीवन्तं च = और लक्ष्मीवान 
मां कुरु = मुझे करो 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


मुझे विद्वान ,यशस्वी, लक्ष्मीवान करो ,  आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥

प्रचण्डदैत्य दर्पघ्ने = प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली 
चण्डिके = चण्डिका 
प्रणताय = शरणागत , आत्म समपर्ण किये 
मे= मुझे 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली चण्डिका शरणागत आये मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥

चतुर्भुजे = चार भुजा धारणी 
चतुर्वक्त्र = चार मुख वाले ब्रह्मा से 
संस्तुते = स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि= = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


चार मुख वाले ब्रह्मा से स्तुत (प्रशंसनीय ) चार भुजा धारणी परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो । 

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥

कृष्णेन संस्तुते = भगवान विष्णु से स्तुत (प्रशंसनीय )
देवि = देवी 
शश्वद्भक्त्या = निरंतर भक्तिपूर्वक 
सदा= हमेशा , नित्य 
अम्बिके = अम्बिका  
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


 भगवान विष्णु से नित्य निरंतर भक्तिपूर्वक स्तुत (प्रशंसनीय ) अम्बिका मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २० ॥

हिमाचल सुतानाथ संस्तुते = हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि   = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय ) परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१ ॥

इन्द्राणीपति = इंद्र द्वारा 
सद्भावपूजिते = सद्भाव से पूजित 
परमेश्वरि   = परमेश्वरी 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो 
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


इंद्र द्वारा सद्भाव से पूजित परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।

देवि = देवी 
प्रचण्डदोर्दण्डदैत्य= प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के 
दर्प= दर्प का 
विनाशिनि = विनाश करने वाली

रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )  
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के दर्प का विनाश करने वाली  देवी ,हमें  जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३  ॥

देवि = देवी 
भक्तजन उद्दाम दत्ता आनन्दोदये अम्बिके = भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका 
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )  
जयं देहि = जय दो 
यशो देहि = यश दो 
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो 


भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका देवी ,हमें  जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ २४ ॥ 

पत्नीं = पत्नी  
मनोरमां = मनोहर 
देहि = दो 
मनोवृत्तानुसारिणीम् = मन की इच्छा के अनुसार चलने  वाली 
तारिणि = तारने वाली 
दुर्गसंसारसागरस्य = संसार रूपी कठिन सागर से 
 कुलोद्भवाम = उत्तम कुल में उत्पन्न 


मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर,  संसार रूपी कठिन सागर से तारने वाली उत्तम कुल में उत्पन्न  पत्नी दो । 


इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २५ ॥

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु = जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के 
महास्तोत्रं पठेन् नरः= महास्त्रोत्र को पढता है 
स = वह  
सप्तशती संख्या = सप्शती संख्या के 
 वरमाप्नोति= वरदान  पाता है 
सम्पदाम् = संपत्ति को 


जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के महास्त्रोत्र को पढता है वह  सप्शती संख्या के श्रेष्ठ वारों और संपत्ति को पाता है । 

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ॥

No comments:

Post a Comment