ॐ अस्य श्रीअर्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुरृषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ।
मार्कण्डेय उवाच ॥
मार्कण्डेय बोला ।
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २॥
जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आपको नमस्कार है ।
मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३॥
मधुकैटभ विद्रावि =मधु कैटभ को पराजित करने वाली
विधातृ वरदे = ब्रह्मा को वरदान देने वाली
नमः = नमस्कार है
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
मधु कैटभ को पराजित करने वाली , ब्रह्मा को वरदान देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४॥
महिषासुर निर्नाशि = महिषासुर का नाश करने वाली ,
भक्तानां सुखदे = भक्तों को सुख देने वाली
नमः = नमस्कार है
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
महिषासुर का नाश करने वाली , भक्तों को सुख देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ५॥
रक्तबीज वधे= रक्तबीज का वध करने वाली
देवि = देवी
चण्डमुण्ड विनाशिनी = चण्ड मुंड का विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
रक्तबीज का वध करने वाली , चण्ड मुंड का विनाश करने वाली देवी आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
शुम्भस्य= शुम्भ का
एव = और, भी
निशुम्भस्य = निशुम्भ का
धूम्राक्षस्य = धूम्राक्ष का
च = और
मर्दिनि=मर्दन करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
शुम्भ का और निशुंभ और धूम्राक्ष का भी मर्दन करने वाली आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ७॥
वन्दिता = वन्दनीय
अङ्घ्रि युगे = युगल चरणों वाली
देवि = देवी
सर्व सौभाग्य दायिनि = सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
युगल चरणों वाली, सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली वन्दनीय देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ८ ॥
अचिन्त्यरूपचरिते = अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली
सर्वशत्रुविनाशिनि= सब शत्रुओं का विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली ,सब शत्रुओं का विनाश करने वाली देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ९॥
नतेभ्यः = नत होने वालों को
सर्वदा = हमेशा
भक्त्या = भक्ति से
चण्डिके =चण्डिका देवी
दुरितापहे = पापों को दूर करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
पापों को दूर करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्ति से नत होने वालों को आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १० ॥
स्तुवद्भ्यो = स्तुति करने वालों को
भक्तिपूर्वं = भक्तिपूर्वक
त्वां = तुम्हारी
चण्डिके = चण्डिका
व्याधिनाशिनि = रोगों का नाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
रोगों का नाश करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करने वालों को रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११॥
चण्डिके = चण्डिका
सततं = हमेशा
ये = जो
तवं अर्चयन्तीह = तुम्हारी पूजा करते हैं
भक्तितः = भक्तिपूर्वक
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे चण्डिका जो तुम्हारी हमेशा भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं उन्हें रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥
देहि = दो
सौभाग्यम् = सौभाग्य
आरोग्यं = निरोगता
देहि= दो
देवि = हे देवी
परं सुखम् = परम सुख
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे देवी सौभग्य और आरोग्य दो , परम सुख दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥
विधेहि= प्रदान करो
द्विषतां = द्वेष रखने वालों को
नाशं = नाश
विधेहि = प्रदान करो
बलमुच्चकैः = महान बल दो
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
द्वेष रखने वालों को नाश प्रदान करो , मुझे महान बल दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमाम् श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४ ॥
विधेहि= प्रदान करो
देवि = हे देवी
कल्याणं = कल्याण
विधेहि = प्रदान करो
परमाम् = उत्तम
श्रियम् = संपत्ति
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे देवी कल्याण करो , उत्तम संपत्ति दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५ ॥
सुरासुर= सुर असुर
शिरोरत्न = सिर के (मुकुट के ) रत्नों को
निघृष्ट= घिसते हैं
चरणे =चरणों में
अम्बिके = हे अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे अम्बिका सुर ,असुर आपके चरणों में सिर के (मुकुट के ) रत्नों को घिसते हैं , आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥
विद्यावन्तं = विद्वान
यशस्वन्तं = यशस्वी
लक्ष्मीवन्तञ्च = लक्ष्मीवन्तं च = और लक्ष्मीवान
मां कुरु = मुझे करो
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
मुझे विद्वान ,यशस्वी, लक्ष्मीवान करो , आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥
प्रचण्डदैत्य दर्पघ्ने = प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली
चण्डिके = चण्डिका
प्रणताय = शरणागत , आत्म समपर्ण किये
मे= मुझे
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली चण्डिका शरणागत आये मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥
चतुर्भुजे = चार भुजा धारणी
चतुर्वक्त्र = चार मुख वाले ब्रह्मा से
संस्तुते = स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि= = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
चार मुख वाले ब्रह्मा से स्तुत (प्रशंसनीय ) चार भुजा धारणी परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥
कृष्णेन संस्तुते = भगवान विष्णु से स्तुत (प्रशंसनीय )
देवि = देवी
शश्वद्भक्त्या = निरंतर भक्तिपूर्वक
सदा= हमेशा , नित्य
अम्बिके = अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
भगवान विष्णु से नित्य निरंतर भक्तिपूर्वक स्तुत (प्रशंसनीय ) अम्बिका मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २० ॥
हिमाचल सुतानाथ संस्तुते = हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय ) परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१ ॥
इन्द्राणीपति = इंद्र द्वारा
सद्भावपूजिते = सद्भाव से पूजित
परमेश्वरि = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
इंद्र द्वारा सद्भाव से पूजित परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।
देवि = देवी
प्रचण्डदोर्दण्डदैत्य= प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के
दर्प= दर्प का
विनाशिनि = विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के दर्प का विनाश करने वाली देवी ,हमें जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३ ॥
देवि = देवी
भक्तजन उद्दाम दत्ता आनन्दोदये अम्बिके = भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका देवी ,हमें जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ २४ ॥
पत्नीं = पत्नी
मनोरमां = मनोहर
देहि = दो
मनोवृत्तानुसारिणीम् = मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली
तारिणि = तारने वाली
दुर्गसंसारसागरस्य = संसार रूपी कठिन सागर से
कुलोद्भवाम = उत्तम कुल में उत्पन्न
मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर, संसार रूपी कठिन सागर से तारने वाली उत्तम कुल में उत्पन्न पत्नी दो ।
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २५ ॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु = जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के
महास्तोत्रं पठेन् नरः= महास्त्रोत्र को पढता है
स = वह
सप्तशती संख्या = सप्शती संख्या के
वरमाप्नोति= वरदान पाता है
सम्पदाम् = संपत्ति को
जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के महास्त्रोत्र को पढता है वह सप्शती संख्या के श्रेष्ठ वारों और संपत्ति को पाता है ।
अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता,
श्रीजगदम्बाप्रीतये सप्तशतिपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ।
मार्कण्डेय उवाच ॥
मार्कण्डेय बोला ।
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥ २॥
जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, शिवा, क्षमा, धात्री, स्वाहा, स्वधा आपको नमस्कार है ।
मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ३॥
मधुकैटभ विद्रावि =मधु कैटभ को पराजित करने वाली
विधातृ वरदे = ब्रह्मा को वरदान देने वाली
नमः = नमस्कार है
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
मधु कैटभ को पराजित करने वाली , ब्रह्मा को वरदान देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ४॥
महिषासुर निर्नाशि = महिषासुर का नाश करने वाली ,
भक्तानां सुखदे = भक्तों को सुख देने वाली
नमः = नमस्कार है
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
महिषासुर का नाश करने वाली , भक्तों को सुख देने वाली देवी नमस्कार है आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ५॥
रक्तबीज वधे= रक्तबीज का वध करने वाली
देवि = देवी
चण्डमुण्ड विनाशिनी = चण्ड मुंड का विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
रक्तबीज का वध करने वाली , चण्ड मुंड का विनाश करने वाली देवी आप रूप दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
शुम्भस्यैव निशुम्भस्य धूम्राक्षस्य च मर्दिनि
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ६॥
एव = और, भी
निशुम्भस्य = निशुम्भ का
धूम्राक्षस्य = धूम्राक्ष का
च = और
मर्दिनि=मर्दन करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
शुम्भ का और निशुंभ और धूम्राक्ष का भी मर्दन करने वाली आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ७॥
वन्दिता = वन्दनीय
अङ्घ्रि युगे = युगल चरणों वाली
देवि = देवी
सर्व सौभाग्य दायिनि = सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
युगल चरणों वाली, सम्पूर्ण सौभाग्य देने वाली वन्दनीय देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ८ ॥
अचिन्त्यरूपचरिते = अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली
सर्वशत्रुविनाशिनि= सब शत्रुओं का विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
अचिन्त्य रूप और चरित्र वाली ,सब शत्रुओं का विनाश करने वाली देवी आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ९॥
नतेभ्यः = नत होने वालों को
सर्वदा = हमेशा
भक्त्या = भक्ति से
चण्डिके =चण्डिका देवी
दुरितापहे = पापों को दूर करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
पापों को दूर करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्ति से नत होने वालों को आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १० ॥
स्तुवद्भ्यो = स्तुति करने वालों को
भक्तिपूर्वं = भक्तिपूर्वक
त्वां = तुम्हारी
चण्डिके = चण्डिका
व्याधिनाशिनि = रोगों का नाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
रोगों का नाश करने वाली चण्डिका देवी हमेशा भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति करने वालों को रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
चण्डिके सततं ये त्वामर्चयन्तीह भक्तितः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ ११॥
चण्डिके = चण्डिका
सततं = हमेशा
ये = जो
तवं अर्चयन्तीह = तुम्हारी पूजा करते हैं
भक्तितः = भक्तिपूर्वक
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे चण्डिका जो तुम्हारी हमेशा भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं उन्हें रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १२ ॥
देहि = दो
सौभाग्यम् = सौभाग्य
आरोग्यं = निरोगता
देहि= दो
देवि = हे देवी
परं सुखम् = परम सुख
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे देवी सौभग्य और आरोग्य दो , परम सुख दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १३ ॥
विधेहि= प्रदान करो
द्विषतां = द्वेष रखने वालों को
नाशं = नाश
विधेहि = प्रदान करो
बलमुच्चकैः = महान बल दो
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
द्वेष रखने वालों को नाश प्रदान करो , मुझे महान बल दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमाम् श्रियम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १४ ॥
विधेहि= प्रदान करो
देवि = हे देवी
कल्याणं = कल्याण
विधेहि = प्रदान करो
परमाम् = उत्तम
श्रियम् = संपत्ति
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे देवी कल्याण करो , उत्तम संपत्ति दो , रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १५ ॥
सुरासुर= सुर असुर
शिरोरत्न = सिर के (मुकुट के ) रत्नों को
निघृष्ट= घिसते हैं
चरणे =चरणों में
अम्बिके = हे अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हे अम्बिका सुर ,असुर आपके चरणों में सिर के (मुकुट के ) रत्नों को घिसते हैं , आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १६ ॥
विद्यावन्तं = विद्वान
यशस्वन्तं = यशस्वी
लक्ष्मीवन्तञ्च = लक्ष्मीवन्तं च = और लक्ष्मीवान
मां कुरु = मुझे करो
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
मुझे विद्वान ,यशस्वी, लक्ष्मीवान करो , आप रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १७ ॥
प्रचण्डदैत्य दर्पघ्ने = प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली
चण्डिके = चण्डिका
प्रणताय = शरणागत , आत्म समपर्ण किये
मे= मुझे
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
प्रचंड दैत्यों के दर्प को नष्ट करने वाली चण्डिका शरणागत आये मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १८ ॥
चतुर्भुजे = चार भुजा धारणी
चतुर्वक्त्र = चार मुख वाले ब्रह्मा से
संस्तुते = स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि= = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
चार मुख वाले ब्रह्मा से स्तुत (प्रशंसनीय ) चार भुजा धारणी परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ १९ ॥
कृष्णेन संस्तुते = भगवान विष्णु से स्तुत (प्रशंसनीय )
देवि = देवी
शश्वद्भक्त्या = निरंतर भक्तिपूर्वक
सदा= हमेशा , नित्य
अम्बिके = अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
भगवान विष्णु से नित्य निरंतर भक्तिपूर्वक स्तुत (प्रशंसनीय ) अम्बिका मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २० ॥
हिमाचल सुतानाथ संस्तुते = हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय )
परमेश्वरि = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
हिमाचल पुत्री के पति शिव से स्तुत (प्रशंसनीय ) परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २१ ॥
इन्द्राणीपति = इंद्र द्वारा
सद्भावपूजिते = सद्भाव से पूजित
परमेश्वरि = परमेश्वरी
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
इंद्र द्वारा सद्भाव से पूजित परमेश्वरी मुझे रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान ) दो , जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पविनाशिनि ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।। २२।।
देवि = देवी
प्रचण्डदोर्दण्डदैत्य= प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के
दर्प= दर्प का
विनाशिनि = विनाश करने वाली
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
प्रचंड भुजदंड वाले दैत्यों के दर्प का विनाश करने वाली देवी ,हमें जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥ २३ ॥
देवि = देवी
भक्तजन उद्दाम दत्ता आनन्दोदये अम्बिके = भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका
रूपं देहि = रूप (आत्मस्वरूप का ज्ञान )
जयं देहि = जय दो
यशो देहि = यश दो
द्विषो जहि =( काम क्रोध आदि ) शत्रुओं का नाश करो
भक्तजनों को असीम आनंद और अभ्युदय देने वाली अम्बिका देवी ,हमें जय दो , यश दो, शत्रुओं का नाश करो ।
भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ।
तारिणि दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ॥ २४ ॥
पत्नीं = पत्नी
मनोरमां = मनोहर
देहि = दो
मनोवृत्तानुसारिणीम् = मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली
तारिणि = तारने वाली
दुर्गसंसारसागरस्य = संसार रूपी कठिन सागर से
कुलोद्भवाम = उत्तम कुल में उत्पन्न
मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली मनोहर, संसार रूपी कठिन सागर से तारने वाली उत्तम कुल में उत्पन्न पत्नी दो ।
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः ।
सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् ॥ २५ ॥
इदं स्तोत्रं पठित्वा तु = जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के
महास्तोत्रं पठेन् नरः= महास्त्रोत्र को पढता है
स = वह
सप्तशती संख्या = सप्शती संख्या के
वरमाप्नोति= वरदान पाता है
सम्पदाम् = संपत्ति को
जो इस स्त्रोत्र को पढ़ के महास्त्रोत्र को पढता है वह सप्शती संख्या के श्रेष्ठ वारों और संपत्ति को पाता है ।
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ॥
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