ध्यानम्
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।
विद्युद्दामसमप्रभां = बिजली की चमक के सामान आत्भहा वाली
मृगपतिस्कन्धस्थितां = सिंह के कंधे पर बैठी
भीषणां = भयानक
कन्याभिः = कन्याओं से
करवाल खेट विलसद्धस्ताभि: = चमकती तलवार , ढाल लिए
सेविताम्= सेवित
हस्तैश्चक्रगदा असिखेटविशिखांश्चापं =हाथों में चक्र गदा तलवार ढाल बाण , तीर, धनुष
गुणं = पाश
तर्जनीं = तर्जनी मुद्रा
बिभ्राणाम = धारण किये
अनलात्मिकां = अग्निमय स्वरुप वाली
शशिधरां = चन्द्रमा धारण किये
दुर्गां त्रिनेत्रां भजे तीन नेत्रों वाली दुर्गा का ध्यान करते हैं
बिजली की चमक के सामान आत्भहा वाली, सिंह के कंधे पर बैठी, भयानक चमकती तलवार , ढाल लिए कन्याओं से सेवित, हाथों में चक्र गदा तलवार ढाल बाण , तीर, धनुष , पाश, तर्जनी मुद्रा धारण किये, अग्निमय स्वरुप वाली, चन्द्रमा का मुकुट धारण किये , तीन नेत्रों वाली दुर्गा का ध्यान करते हैं ।
ॐ देव्युवाच ॥ १॥
देवी बोलीं ।
एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः ।
तस्याहं सकलां बाधां शमयिष्याम्यसंशयम् ॥ २॥
एभिः =इन
स्तवै= स्तुतियों से
च = और
मां = मेरी
नित्यं = रोज़
स्तोष्यते = स्तुति करेगा
यः = जो
समाहितः एकाग्रचित्त हो
तस्याहं = उसकी मैं
सकलां = सभी
बाधां = बाधाओं को
शमयिष्याम्य = नष्ट कर दूंगी
असंशयम् = बिना शक के , निश्चित ही
जो इन स्तुतियों से एकाग्रचित्त हो नित्य
मेरी स्तुति करेगा उसकी सभी बाधाओं को मैं निश्चित ही नष्ट कर दूंगी ।
मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम् ।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वधं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ३॥
मधुकैटभनाशं = मधु कैटभ के नाश
च = और
महिषासुरघातनम् = महिषासुर के संहार का
कीर्तयिष्यन्ति = कीर्तन करेंगे
ये =जो
तद्वत् = वैसे ही
वधम् = वध का
शुम्भनिशुम्भयोः = शुम्भ निशुम्भ के
जो मधु कैटभ के नाश , महिषासुर के संहार का और वैसे ही शुम्भ निशुम्भ के वध का कीर्तन करेंगे ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः ।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम् ॥ ४॥
अष्टम्यां = अष्टमी
च = और
चतुर्दश्यां = चतुर्दशी
नवम्यां = नवमी
चैकचेतसः एकाग्रचित्त हो
श्रोष्यन्ति = श्रवण
च= और
एव = ही
ये = जो
भक्त्या = भक्तिपूर्वक
मम = मेरे
माहात्म्यम उत्तमम् = उत्तम माहात्मय का
जो भक्तिपूर्वक मेरे उत्तम माहात्मय का एकाग्रचित्त हो अष्टमी, चतुर्दशी और नवमी को श्रवण ही करेंगे
न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद्दुष्कृतोत्था न चापदः ।
भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम् ॥ ५॥
न = नही
तेषां = उन से
दुष्कृतं = पाप
किञ्चित्= कुछ
दुष्कृतोत्था = पाप जनित
न = न
चापदः = आपत्तियां
भविष्यति = होंगी
न = ना
दारिद्र्यं = दरिद्रता
न च एव= और न ही
इष्टवियोजनम्= प्रियजनों का विछोह होगा
न उनसे कुछ पाप होगा , न पापजनित आपत्तियां होंगी , न दरिद्रता होगी, न प्रियजनों का विछोह होगा ।
शत्रुभ्यो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः ।
न शस्त्रानलतोयौघात् कदाचित् सम्भविष्यति ॥ ६॥
शत्रुभ्यो = शत्रुओं से
न = न
भयं = डर
तस्य = उसको
दस्युतो = लुटेरों
वा= या
न = न
राजतः= राजाओं से
न = न
शस्त्र अनल तोयौघात् = शास्त्र , अग्नि , जलधारा से
कदाचित् = कुछ
सम्भविष्यति= होगा
उसको न शत्रुओं से , न लुटेरों से या राजाओं से , न शास्त्र , अग्नि , जलधारा से कुछ डर होगा ।
तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः ।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं महत् ॥ ७॥
तस्मात् = इसलिए
मम एतत् माहात्म्यं = मेरा ये माहात्म्य
पठितव्यं = पढ़ें
समाहितैः = एकाग्रचित्त हो
श्रोतव्यं = सुनें
च = और
सदा - सदा
भक्त्या = भक्ति पूवर्क
परं = परम
स्वस्त्ययनं = कल्याणकारी
तत् = जो
हि= निश्चित रूप से
इसलिए एकाग्रचित्त हो मेरा ये माहात्म्य भक्तिपूर्वक सदा पढ़ें और सुने जो निश्चितरूप से परम कल्याणकारी है ।
उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान् ।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम ॥ ८॥
उपसर्गान् = रोगों
अशेषान् = सभी
तु = और
महामारी समुद्भवान् = महामारी से उत्पन्न
तथा = इसी प्रकार
त्रिविधम उत्पातं = तीन प्रकार के उत्पातों को
माहात्म्यं= माहात्मय
शमयेन्= शांत करने वाला है
मम= मेरा मेरा माहात्म्य सभी रोगों और और इसी प्रकार महामारी से उत्पन्न तीन प्रकार के उत्पातों को शांत करने वाला है ।
यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम ।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्यं तत्र मे स्थितम् ॥ ९॥
यत्र एतत्= जहां ये
पठ्यते =पढ़ा जाता है
सम्यक् = विधिपूर्वक
नित्यम् = रोज़
आयतने = घर
मम = मेरा
सदा = हमेशा
न = नहीं
तत् =वह
विमोक्ष्यामि = छोड़ती
सांनिध्यं = सानिध्य
तत्र = वहां
मे = मेरा
स्थितम् = स्थित रहता है
जहां मेरा ये माहात्म्य विधिपूर्वक नियम से पढ़ा जाता है , वह घर नहीं छोड़ती , वहां हमेशा मेरा सानिध्य स्थित रहता है ।
बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे ।
सर्वं ममैतन्माहात्म्यम् उच्चार्यं श्राव्यमेव च ॥ १०॥
बलिप्रदाने = बलि दान
पूजायाम् = पूजा
अग्निकार्ये = होम
महोत्सवे = महोत्सव में
सर्वं = सब को
मम= मेरे
एतत् माहात्म्यम् = इस माहात्म्य का
उच्चार्यं = उच्चारण करना
श्राव्यम् = श्रवण
एव = निश्चित रूप से
च= और
बलिदान , पूजा , होम , महोत्सव में सबको मेरे इस माहात्म्य का निश्चित रूप से उच्चारण और श्रवण करना चाहिए ।
जानताजानता वापि बलिपूजां यथा कृताम् ।
प्रतीक्षिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथाकृतम् ॥ ११॥
जानताजानता वा= (विधि ) जानते हुए अथवा न जानते हुए
अपि = भी
बलिपूजां= बलि पूजा
तथा= इसी प्रकार
कृताम् = करता है
प्रतीक्षिष्यामि= ग्रहण करुँगी
अहं = मैं
प्रीत्या = प्रेम से
वह्निहोमं = यज्ञ
तथा= इसी प्रकार
कृतम् = करता है
इसीप्रकार विधि जानते हुए अथवा न जानते हुए भी बलि पूजा करता है , इसी प्रकार यज्ञ करता है , मैं प्रेम से ग्रहण करुँगी ।
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी ।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ॥ १२॥
शरत्काले = शरत काल में
महापूजा = महापूजा
क्रियते = करते हैं
या = जो
च = और
वार्षिकी = वार्षिक
तस्यां = उस में
मम एतत माहात्म्यं = मेरे इस माहात्म्य को
श्रुत्वा = सुनते हैं
भक्तिसमन्वितः = भक्तिपूर्वक
शरत्काल में जो वार्षिक महापूजा करते हैं और उस में मेरे इस माहात्मय को भक्तिपूर्वक सुनते हैं
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसमन्वितः ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ १३॥
सर्वाबाधा= सब बाधाओं
विनिर्मुक्तो =से मुक्त
धन धान्य सुतान्वितः = धन धान्य,पुत्रों से युक्त
मनुष्यो = मनुष्य
मत्प्रसादेन =मेरे प्रसाद से
भविष्यति = होगा
न संशयः =बिना संशय के
वे मनुष्य मेरे प्रसाद से बिना संशय के सब बाधाओं से मुक्त , धन धान्य,पुत्रों से युक्त होंगे ।
श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः ।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् ॥ १४॥
श्रुत्वा = सुन कर
मम एतत माहात्म्यं = मेरे इस माहात्म्य को
तथा = इसी प्रकार
च = और
उत्पत्तयः = उत्पत्ति
शुभाः = शुभ
पराक्रमं = पराक्रम को
च = और
युद्धेषु = युद्ध के
जायते = हो जाएगा
निर्भयः = निर्भय
पुमान् = मनुष्य
मेरे इस माहात्म्य को और इसी प्रकार शुभ उत्पत्ति और युद्ध के पराक्रम को सुन कर मनुष्य निर्भय हो जाएगा ।
रिपवः सङ्क्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते ।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम् ॥ १५॥
रिपवः = शत्रु
सङ्क्षयं = नष्ट
यान्ति = हो जाते हैं
कल्याणं = कल्याण की
च= और
उपपद्यते = प्राप्ति होती है
नन्दते = आनंदित होता है
च = और
कुलं = कुल
पुंसां = मनुष्य के
माहात्म्यं= माहात्म्य को
मम = मेरे
शृण्वताम् = सुनाने से
मेरे माहात्मय के सुनाने से मनुष्य के शत्रु नष्ट हो जाते हैं और कल्याण की प्राप्ति होती है और कुल आनंदित होता है ।
शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने ।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम ॥ १६॥
शान्तिकर्मणि = शान्ति कर्मों में
सर्वत्र = सभी
तथा = इसी प्रकार
दुःस्वप्नदर्शने = बुरे सपने दिखाई देने पर
ग्रहपीडासु = ग्रह पीड़ा में
च = और
उग्रासु = भयंकर
माहात्म्यं = माहात्म्य को
शृणुयात् = सुनना चाहिए
मम= मेरा
सभी शान्ति कर्मों में और इसी प्रकार बुरे सपने दिखाई देने पर और भयंकर ग्रह पीड़ा में मेरे माहात्म्य को सुनना चाहिए ।
उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः ।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते ॥ १७॥
उपसर्गाः = विघ्न
शमं = शांत
यान्ति = हो जाती हैं
ग्रहपीडा = ग्रह पीड़ाएं
च = और
दारुणाः = भयंकर
दुःस्वप्नं= बुरे स्वप्न
च = और
नृभि:= मनुष्यों द्वारा
दृष्टं = देखे गए
सुस्वप्नम् = शुभ स्वप्न
उपजायते = हो जाते हैं
विघ्न और भयंकर ग्रह पीड़ाएं शांत हो जाती हैं और मनुष्यों द्वारा देखे गए बुरे स्वपन शुभ स्वप्न हो जाते हैं ।
बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम् ।
सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् ॥ १८॥
बालग्रहा अभिभूतानां = बालग्रहों से व्याकुल
बालानां =बालकों के लिए
शान्तिकारकम् = शान्तिकारक है
सङ्घातभेदे = संगठन में फूट होने से
च = और
नृणां = मनुष्यों के
मैत्रीकरणम् = मित्रता कराने वाला है
उत्तमम्= उत्तम
बालग्रहों से व्याकुल बालकों के लिए शान्तिकारक है और मनुष्यों के संगठन में फूट होने से उत्तम मित्रता कराने वाला है ।
दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम् ।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ॥ १९॥
दुर्वृत्तानाम= दुराचारियों के
अशेषाणां = सभी
बलहानिकरं = बल का नाश करने वाला
परम् = परम
रक्षोभूतपिशाचानां = राक्षसों , भूतों , पिशाचों का
पठनादेव = पढ़ने से ही
नाशनम् = नाश कर देता है
महातम्य को पढ़ने से ही सभी दुराचारियों के परम बल का नाश करने वाला (और ) राक्षसों , भूतों , पिशाचों का नाश कर देता है ।
सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् ।
सर्वं = सब
ममैतन्माहात्म्यं = मेरा ये माहात्मय
मम = मेरा
सन्निधिकारकम् = सामीप्य कराने वाला है
मेरा ये सब माहात्मय मेरा सामीप्य कराने वाला है ।
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ॥ २०॥
पशु पुष्प अर्घ्य धूपैश्च= पशु , फूल , अर्ध्य और धुप
गन्ध दीपै: तथा उत्तमैः = इसी प्रकार उत्तम गंध , दीप से
पशु , फूल , अर्ध्य, धुप और इसी प्रकार उत्तम गंध , दीप से
विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् ।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या ॥ २१॥
भोजनै: = भोजन
होमैः = होम
प्रोक्षणीयै: = अभिषेक
अहर्निशम्= प्रतिदिन
अन्यै:= अन्य
च = और
विविधै: भोगैः = अनेक प्रकार के भोग
प्रदानै: प्रदान करने से
वत्सरेण = एक साल तक
या = जो
साल भर प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन, होम ,अभिषेक और अनेक प्रकार के अन्य भोग प्रदान कर
प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृदुच्चरिते श्रुते ।
श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यं प्रयच्छति ॥ २२॥
प्रीति: मे = मुझे प्रसन्न
क्रियते = करते हैं
सा = वह , उतनी
अस्मिन् = इस
सकृतचरिते = उत्तम चरित्र को
श्रुते= सुनने से होती हूँ
श्रुतं =सुनने पर
हरति = हरती हूँ
पापानि = पाप
तथा= इसी प्रकार
आरोग्यं प्रयच्छति = आरोग्य प्रदान करती हूँ
मुझे प्रसन्न करते हैं , उतनी (प्रसन्न मैं) इस उत्तम चरित्र को सुनने से होती हूँ, इसे सुनने पर मैं पाप हारती हूँ , इसी प्रकार आरोग्य प्रदान करती हूँ ।
रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम ।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् ॥ २३॥
तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते ।
रक्षां = रक्षा
करोति = करता है
भूतेभ्यो = भूतों से
जन्मनां = उत्पत्ति का
कीर्तनं = कीर्तन
मम = मेरी
युद्धेषु = युद्ध का
चरितं = चरित्र है
यन्मे = जो मेरा
दुष्टदैत्यनिबर्हणम् = दुष्ट दैत्यों के संहार का
तस्मिञ्छ्रुते = उसके सुनने से
वैरिकृतं = शत्रुओं द्वारा उत्पन्न
भयं = भय
पुंसां = मनुष्यों को
न जायते = नहीं रहता
मेरी उत्पत्ति का कीर्तन भूतों से रक्षा करता है । दुष्ट दैत्यों के संहार का जो मेरा चरित्र है उसके सुनने से शत्रुओं द्वारा उत्पन्न भय मनुष्यों को नहीं रहता ।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः ॥ २४॥
ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्तु शुभां मतिम् ।
युष्माभिः = तुम ने
स्तुतयो = स्तुति
याश्च = और जो
याश्च = और जो
ब्रह्मर्षिभिः ब्रह्म ऋषियों ने
कृताः = की है
ब्रह्मणा च = और ब्रह्मा ने
कृता:= की है
ता: = वे
तु = वास्तव में
प्रयच्छन्तु = देती है
शुभां =शुभ
मतिम् = मति
और जो (देवताओं ) तुमने , और जो ब्रह्म ऋषियों ने स्तुति की है और जो ब्रह्मा ने की है वो वास्तव में शुभ मति देती हैं ।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः ॥ २५॥
दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः ।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः ॥ २६॥
अरण्ये = वनमे
प्रान्तरे = निर्जन रास्ते में
वा= अथवा
अपि = भी
दावाग्नि परिवारितः= जंगल की आग में घिर कर
दस्युभि:= लुटेरों से
वा = अथवा
वृतः = घिर कर
शून्ये = निर्जन में
गृहीतो = पकडे जाने पर
वापि = अथवा
शत्रुभिः= शत्रुओं द्वारा
सिंहव्याघ्रा = शेर और चीतों
अनुयातो = पीछा करने पर
वा =अथवा
वने =वन में
वा =अथवा
वनहस्तिभिः= जंगली हाथियों द्वारा
वनमे अथवा निर्जन रास्ते में अथवा जंगल की आग में घिर कर भी , निर्जन में लुटेरों से घर कर अथवा शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने पर अथवा वन में शेर और चीतों द्वारा या जंगली हाथियों द्वारा
पीछा करने पर
राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा ।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे ॥ २७॥
राज्ञा = राजा
क्रुद्धेन = क्रोधित
च= और
अज्ञप्तो = आज्ञा
वध्यो = वध की
बन्धगतो= बंदी होने पर
अपि = भी
वा = अथवा
आघूर्णितो= डगमगाती
वा = अथवा
वातेन = तूफ़ान से
स्थितः = स्थित
पोते = नाव पर
महार्णवे = महासागर में
क्रोधित राजा द्वारा वध की आज्ञा या बंदी होने से अथवा महासागर में तूफ़ान से डगमगाती नाव पर स्थित होने पर
पतत्सु चापि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृशदारुणे ।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा ॥ २८॥
पतत्सु = प्रहार होने पर
च = और
अपि= भी
शस्त्रेषु = शास्त्रों के
सङ्ग्रामे= संग्राम में
भृशदारुणे = अत्यंत भयंकर
सर्वाबाधासु = बाधाओं में
घोरासु = भयानक
वेदनाभ्य आर्दितो = वेदना से पीड़ित होने पर
अपि = भी
वा = या
और अत्यंत भयंकर संग्राम में शास्त्रों के प्रहार होने पर भी, भयानक बाधाओं में या वेदना से पीड़ित होने पर भी
स्मरन् ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात् ।
स्मरन् = स्मरण करने पर
ममैतच्चरितं = मम एतत चरितं = मेरे इस माहात्मय को
नरो = मनुष्य
मुच्येत = मुक्त हो जाता है
सङ्कटात्= संकटों से
मेरे इस माहात्मय को स्मरण करने पर मनुष्य संकटों से मुक्त हो जाता है ।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा ॥ २९॥
दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम ॥ ३०॥
मम = मेरे
प्रभावात्= प्रभाव से
सिंहाद्या = सिंह आदि जानवर
दस्यवो = लुटेरे
वैरिण: = शत्रु
तथा = इसी प्रकार
दूरात् एव = दूर से ही
पलायन्ते = भागते हैं
स्मरत: = समरण करने पर
चरितं = चरित्र का
मम = मेरे
मेरे चरित्र का स्मरण करने पर मेरे प्रभाव से सिंह आदि जानवर, लुटेरे , इसी प्रकार शत्रु दूर से ही भागते हैं ।
ऋषिरुवाच ॥ ३१॥
ऋषि बोला ।
इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ ३२॥
पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत ।
इत्युक्त्वा = इति उक्तवा = यह कह कर
सा = वह
भगवती = भगवती
चण्डिका = चण्डिका
चण्डविक्रमा= प्रचंड पराक्रम वाली
पश्यतां = देखते
सर्वदेवानां = सब देवताओं के
तत्रैव= वहीँ
अन्तरधीयत = अंतर्ध्यान हो गयी
यह कह कर वह प्रचंड पराक्रम वाली बगवती चण्डिका सब देवताओं के देखते देखते वहीँ अंतर्ध्यान हो गयीं ।
तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान्यथा पुरा ॥ ३३॥
यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः ।
तेऽपि= वे भी
देवा = देवता
निरातङ्काः = आतंक रहित हो
स्वाधिकारान् = अपने अधिकार का पालन
यथा = जैसे
पुरा = पहले
यज्ञभागभुजः= यज्ञ भाग का उपभोग करते हुए
सर्वे = सब
चक्रु: = करने लगे
विनिहता = मारे जाने पर
आरयः= शत्रुओं के
वे सब देवता भी शत्रुओं के मारे जाने पर पहले की तरह डर रहित हो यज्ञ भाग का उपभोग करते हुए अपने अधिकार का पालन करने लगे ।
दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि ॥ ३४॥
जगद्विध्वंसके तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे ।
निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः ॥ ३५॥
दैत्या: = दैत्य
च = और
देव्या = देवी द्वारा
निहते = मारे जाने पर
शुम्भे = शुम्भ के
देवरिपौ = असुर
युधि= युद्ध में
जगत् विध्वंसनि = जगत को नष्ट करने वाले
तस्मिन् = उस
महोग्रे= महा भयंकर
अतुलविक्रमे = अत्यंत पराक्रमी
निशुम्भे च = और निशुम्भ के
महावीर्ये = महावीर्य
शेषाः = बचे हुए
पातालम= पाताल में
आययुः= चले गए
और जगत को नष्ट करने वाले उस महा भयंकर अत्यंत पराक्रमी असुर शुम्भ और महावीर निशुम्भ के युद्ध में देवी द्वारा मारे जाने पर शेष बचे दैत्य पाताल चले गए ।
एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः ।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ॥ ३६॥
एवं = इस प्रकरर्
भगवती = भगवती
देवी = देवी
सा = वह
नित्यापि = नित्य होती हुई भी
पुनः पुनः = बार बार
सम्भूय = प्रकट हो कर
कुरुते = करती है
भूप = हे राजा
जगतः = जगत की
परिपालनम् = रक्षा
हे राजा , इस प्रकार वह भगवती देवी नित्य होती हुई भी बार बार प्रकट हो कर जगत की रक्षा करती है ।
तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते ।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति ॥ ३७॥
तया = उनसे
एतत =इस
मोह्यते = मोहित किया जाता है
विश्वं = विश्व को
सैव स एव = वह ही
विश्वं = विश्व को
प्रसूयते = जनम देती हैं
सा = वह
याचिता = प्रार्थना करने पर
च = और
विज्ञानं = विज्ञान
तुष्टा = संतुष्ट हो
ऋद्धिं = समृद्धि
प्रयच्छति = प्रदान करती हैं
उनके द्वारा ही इस विश्व को मोहित किया जाता है , वे ही विश्व को जनम देती हैं । वह प्रार्थना करने पर संतुष्ट हो समृद्धि प्रदान करती हैं ।
व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर ।
महादेव्या महाकाली महामारीस्वरूपया ॥ ३८॥
व्याप्तं = व्याप्त है
तया= उनके द्वारा ही
एतत = यह
सकलं = सारा
ब्रह्माण्डं = ब्रह्माण्ड
मनुजेश्वर = हे राजन
महाकाल्या = महाकाली
महाकाले = महाकाल में
महामारीस्वरूपया = महामारी का रूप धारण करने वाली
हे राजन महाकाल में महामारी का रूप धारण करने वाली उन महाकाली द्वारा ही यह सारा ब्रह्माण्ड व्याप्त है ।
सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा ।
स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी ॥ ३९॥
सैव = वह ही
काले = समयानुसार
महामारी =महामारी
सैव = वह ही
सृष्टि:= सृष्टि
भवति = बन जाती हैं
अजा = अजन्मा
स्थितिं = रक्षा , पालन पोषण
करोति = करती हों
भूतानां = प्राणियों की
सैव = वह ही
काले = समय समय पर
सनातनी = सनातनी(नित्य एवं प्राचीन ) देवी
वह ही समयानुसार महामारी हैं , वे ही अजन्मा हो कर भी सृष्टि बन जाती हैं , वे सनातनी देवी ही समयनुसार प्राणियों की रक्षा करती हैं ।
भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे ।
सैवाभावे तथालक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ॥ ४०॥
भवकाले = शुभ समय में
नृणां = मनुष्यों के
सैव = वे ही
लक्ष्मी: = लक्ष्मी
वृद्धिप्रदा = समृद्धि देने वाली
गृहे = घर में
सैव = वे ही
अभावे = अभाव में
तथा = इसी प्रकार
अलक्ष्मी: = अलक्ष्मी हैं
विनाशाय = विनाश
उपजायते = करने वाली
वे ही शुभ समय में मनुष्यों घर में समृद्धि देने वाली लक्ष्मी हैं , इसी प्रकार वे ही अभाव में विनाश करने वाली अलक्ष्मी हैं ।
स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्गन्धधूपादिभिस्तथा ।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ॥ ४१॥
स्तुता = स्तुति करने से
सम्पूजिता = पूजा कर
पुष्पै:= फूल
गन्धधूपादिभि:= गंध , धुप आदि से
तथा = इस प्रकार
ददाति = देती हैं
वित्तं = धन
पुत्रांश्च = और पुत्र
मतिं = बुद्धि
धर्मे = धार्मिक
गतिं = गति
शुभाम् = शुभ
इसी प्रकार फूल गंध , धुप आदि से पूजा कर स्तुति करने से धन , पुत्र , धार्मिक बुद्धि और शुभ गति देती है ।
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
भगवती वाक्यं द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
ॐ विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे।।
विद्युद्दामसमप्रभां = बिजली की चमक के सामान आत्भहा वाली
मृगपतिस्कन्धस्थितां = सिंह के कंधे पर बैठी
भीषणां = भयानक
कन्याभिः = कन्याओं से
करवाल खेट विलसद्धस्ताभि: = चमकती तलवार , ढाल लिए
सेविताम्= सेवित
हस्तैश्चक्रगदा असिखेटविशिखांश्चापं =हाथों में चक्र गदा तलवार ढाल बाण , तीर, धनुष
गुणं = पाश
तर्जनीं = तर्जनी मुद्रा
बिभ्राणाम = धारण किये
अनलात्मिकां = अग्निमय स्वरुप वाली
शशिधरां = चन्द्रमा धारण किये
दुर्गां त्रिनेत्रां भजे तीन नेत्रों वाली दुर्गा का ध्यान करते हैं
बिजली की चमक के सामान आत्भहा वाली, सिंह के कंधे पर बैठी, भयानक चमकती तलवार , ढाल लिए कन्याओं से सेवित, हाथों में चक्र गदा तलवार ढाल बाण , तीर, धनुष , पाश, तर्जनी मुद्रा धारण किये, अग्निमय स्वरुप वाली, चन्द्रमा का मुकुट धारण किये , तीन नेत्रों वाली दुर्गा का ध्यान करते हैं ।
ॐ देव्युवाच ॥ १॥
देवी बोलीं ।
एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः ।
तस्याहं सकलां बाधां शमयिष्याम्यसंशयम् ॥ २॥
एभिः =इन
स्तवै= स्तुतियों से
च = और
मां = मेरी
नित्यं = रोज़
स्तोष्यते = स्तुति करेगा
यः = जो
समाहितः एकाग्रचित्त हो
तस्याहं = उसकी मैं
सकलां = सभी
बाधां = बाधाओं को
शमयिष्याम्य = नष्ट कर दूंगी
असंशयम् = बिना शक के , निश्चित ही
जो इन स्तुतियों से एकाग्रचित्त हो नित्य
मेरी स्तुति करेगा उसकी सभी बाधाओं को मैं निश्चित ही नष्ट कर दूंगी ।
मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम् ।
कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वधं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ३॥
मधुकैटभनाशं = मधु कैटभ के नाश
च = और
महिषासुरघातनम् = महिषासुर के संहार का
कीर्तयिष्यन्ति = कीर्तन करेंगे
ये =जो
तद्वत् = वैसे ही
वधम् = वध का
शुम्भनिशुम्भयोः = शुम्भ निशुम्भ के
जो मधु कैटभ के नाश , महिषासुर के संहार का और वैसे ही शुम्भ निशुम्भ के वध का कीर्तन करेंगे ।
अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः ।
श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम् ॥ ४॥
अष्टम्यां = अष्टमी
च = और
चतुर्दश्यां = चतुर्दशी
नवम्यां = नवमी
चैकचेतसः एकाग्रचित्त हो
श्रोष्यन्ति = श्रवण
च= और
एव = ही
ये = जो
भक्त्या = भक्तिपूर्वक
मम = मेरे
माहात्म्यम उत्तमम् = उत्तम माहात्मय का
जो भक्तिपूर्वक मेरे उत्तम माहात्मय का एकाग्रचित्त हो अष्टमी, चतुर्दशी और नवमी को श्रवण ही करेंगे
न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद्दुष्कृतोत्था न चापदः ।
भविष्यति न दारिद्र्यं न चैवेष्टवियोजनम् ॥ ५॥
न = नही
तेषां = उन से
दुष्कृतं = पाप
किञ्चित्= कुछ
दुष्कृतोत्था = पाप जनित
न = न
चापदः = आपत्तियां
भविष्यति = होंगी
न = ना
दारिद्र्यं = दरिद्रता
न च एव= और न ही
इष्टवियोजनम्= प्रियजनों का विछोह होगा
न उनसे कुछ पाप होगा , न पापजनित आपत्तियां होंगी , न दरिद्रता होगी, न प्रियजनों का विछोह होगा ।
शत्रुभ्यो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः ।
न शस्त्रानलतोयौघात् कदाचित् सम्भविष्यति ॥ ६॥
शत्रुभ्यो = शत्रुओं से
न = न
भयं = डर
तस्य = उसको
दस्युतो = लुटेरों
वा= या
न = न
राजतः= राजाओं से
न = न
शस्त्र अनल तोयौघात् = शास्त्र , अग्नि , जलधारा से
कदाचित् = कुछ
सम्भविष्यति= होगा
उसको न शत्रुओं से , न लुटेरों से या राजाओं से , न शास्त्र , अग्नि , जलधारा से कुछ डर होगा ।
तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः ।
श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं महत् ॥ ७॥
तस्मात् = इसलिए
मम एतत् माहात्म्यं = मेरा ये माहात्म्य
पठितव्यं = पढ़ें
समाहितैः = एकाग्रचित्त हो
श्रोतव्यं = सुनें
च = और
सदा - सदा
भक्त्या = भक्ति पूवर्क
परं = परम
स्वस्त्ययनं = कल्याणकारी
तत् = जो
हि= निश्चित रूप से
इसलिए एकाग्रचित्त हो मेरा ये माहात्म्य भक्तिपूर्वक सदा पढ़ें और सुने जो निश्चितरूप से परम कल्याणकारी है ।
उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान् ।
तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम ॥ ८॥
उपसर्गान् = रोगों
अशेषान् = सभी
तु = और
महामारी समुद्भवान् = महामारी से उत्पन्न
तथा = इसी प्रकार
त्रिविधम उत्पातं = तीन प्रकार के उत्पातों को
माहात्म्यं= माहात्मय
शमयेन्= शांत करने वाला है
मम= मेरा मेरा माहात्म्य सभी रोगों और और इसी प्रकार महामारी से उत्पन्न तीन प्रकार के उत्पातों को शांत करने वाला है ।
यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम ।
सदा न तद्विमोक्ष्यामि सांनिध्यं तत्र मे स्थितम् ॥ ९॥
यत्र एतत्= जहां ये
पठ्यते =पढ़ा जाता है
सम्यक् = विधिपूर्वक
नित्यम् = रोज़
आयतने = घर
मम = मेरा
सदा = हमेशा
न = नहीं
तत् =वह
विमोक्ष्यामि = छोड़ती
सांनिध्यं = सानिध्य
तत्र = वहां
मे = मेरा
स्थितम् = स्थित रहता है
जहां मेरा ये माहात्म्य विधिपूर्वक नियम से पढ़ा जाता है , वह घर नहीं छोड़ती , वहां हमेशा मेरा सानिध्य स्थित रहता है ।
बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे ।
सर्वं ममैतन्माहात्म्यम् उच्चार्यं श्राव्यमेव च ॥ १०॥
बलिप्रदाने = बलि दान
पूजायाम् = पूजा
अग्निकार्ये = होम
महोत्सवे = महोत्सव में
सर्वं = सब को
मम= मेरे
एतत् माहात्म्यम् = इस माहात्म्य का
उच्चार्यं = उच्चारण करना
श्राव्यम् = श्रवण
एव = निश्चित रूप से
च= और
बलिदान , पूजा , होम , महोत्सव में सबको मेरे इस माहात्म्य का निश्चित रूप से उच्चारण और श्रवण करना चाहिए ।
जानताजानता वापि बलिपूजां यथा कृताम् ।
प्रतीक्षिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथाकृतम् ॥ ११॥
जानताजानता वा= (विधि ) जानते हुए अथवा न जानते हुए
अपि = भी
बलिपूजां= बलि पूजा
तथा= इसी प्रकार
कृताम् = करता है
प्रतीक्षिष्यामि= ग्रहण करुँगी
अहं = मैं
प्रीत्या = प्रेम से
वह्निहोमं = यज्ञ
तथा= इसी प्रकार
कृतम् = करता है
इसीप्रकार विधि जानते हुए अथवा न जानते हुए भी बलि पूजा करता है , इसी प्रकार यज्ञ करता है , मैं प्रेम से ग्रहण करुँगी ।
शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी ।
तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ॥ १२॥
शरत्काले = शरत काल में
महापूजा = महापूजा
क्रियते = करते हैं
या = जो
च = और
वार्षिकी = वार्षिक
तस्यां = उस में
मम एतत माहात्म्यं = मेरे इस माहात्म्य को
श्रुत्वा = सुनते हैं
भक्तिसमन्वितः = भक्तिपूर्वक
शरत्काल में जो वार्षिक महापूजा करते हैं और उस में मेरे इस माहात्मय को भक्तिपूर्वक सुनते हैं
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसमन्वितः ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥ १३॥
सर्वाबाधा= सब बाधाओं
विनिर्मुक्तो =से मुक्त
धन धान्य सुतान्वितः = धन धान्य,पुत्रों से युक्त
मनुष्यो = मनुष्य
मत्प्रसादेन =मेरे प्रसाद से
भविष्यति = होगा
न संशयः =बिना संशय के
वे मनुष्य मेरे प्रसाद से बिना संशय के सब बाधाओं से मुक्त , धन धान्य,पुत्रों से युक्त होंगे ।
श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः ।
पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् ॥ १४॥
श्रुत्वा = सुन कर
मम एतत माहात्म्यं = मेरे इस माहात्म्य को
तथा = इसी प्रकार
च = और
उत्पत्तयः = उत्पत्ति
शुभाः = शुभ
पराक्रमं = पराक्रम को
च = और
युद्धेषु = युद्ध के
जायते = हो जाएगा
निर्भयः = निर्भय
पुमान् = मनुष्य
मेरे इस माहात्म्य को और इसी प्रकार शुभ उत्पत्ति और युद्ध के पराक्रम को सुन कर मनुष्य निर्भय हो जाएगा ।
रिपवः सङ्क्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते ।
नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम् ॥ १५॥
रिपवः = शत्रु
सङ्क्षयं = नष्ट
यान्ति = हो जाते हैं
कल्याणं = कल्याण की
च= और
उपपद्यते = प्राप्ति होती है
नन्दते = आनंदित होता है
च = और
कुलं = कुल
पुंसां = मनुष्य के
माहात्म्यं= माहात्म्य को
मम = मेरे
शृण्वताम् = सुनाने से
मेरे माहात्मय के सुनाने से मनुष्य के शत्रु नष्ट हो जाते हैं और कल्याण की प्राप्ति होती है और कुल आनंदित होता है ।
शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने ।
ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम ॥ १६॥
शान्तिकर्मणि = शान्ति कर्मों में
सर्वत्र = सभी
तथा = इसी प्रकार
दुःस्वप्नदर्शने = बुरे सपने दिखाई देने पर
ग्रहपीडासु = ग्रह पीड़ा में
च = और
उग्रासु = भयंकर
माहात्म्यं = माहात्म्य को
शृणुयात् = सुनना चाहिए
मम= मेरा
सभी शान्ति कर्मों में और इसी प्रकार बुरे सपने दिखाई देने पर और भयंकर ग्रह पीड़ा में मेरे माहात्म्य को सुनना चाहिए ।
उपसर्गाः शमं यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः ।
दुःस्वप्नं च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते ॥ १७॥
उपसर्गाः = विघ्न
शमं = शांत
यान्ति = हो जाती हैं
ग्रहपीडा = ग्रह पीड़ाएं
च = और
दारुणाः = भयंकर
दुःस्वप्नं= बुरे स्वप्न
च = और
नृभि:= मनुष्यों द्वारा
दृष्टं = देखे गए
सुस्वप्नम् = शुभ स्वप्न
उपजायते = हो जाते हैं
विघ्न और भयंकर ग्रह पीड़ाएं शांत हो जाती हैं और मनुष्यों द्वारा देखे गए बुरे स्वपन शुभ स्वप्न हो जाते हैं ।
बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम् ।
सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् ॥ १८॥
बालग्रहा अभिभूतानां = बालग्रहों से व्याकुल
बालानां =बालकों के लिए
शान्तिकारकम् = शान्तिकारक है
सङ्घातभेदे = संगठन में फूट होने से
च = और
नृणां = मनुष्यों के
मैत्रीकरणम् = मित्रता कराने वाला है
उत्तमम्= उत्तम
बालग्रहों से व्याकुल बालकों के लिए शान्तिकारक है और मनुष्यों के संगठन में फूट होने से उत्तम मित्रता कराने वाला है ।
दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरं परम् ।
रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् ॥ १९॥
दुर्वृत्तानाम= दुराचारियों के
अशेषाणां = सभी
बलहानिकरं = बल का नाश करने वाला
परम् = परम
रक्षोभूतपिशाचानां = राक्षसों , भूतों , पिशाचों का
पठनादेव = पढ़ने से ही
नाशनम् = नाश कर देता है
महातम्य को पढ़ने से ही सभी दुराचारियों के परम बल का नाश करने वाला (और ) राक्षसों , भूतों , पिशाचों का नाश कर देता है ।
सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् ।
सर्वं = सब
ममैतन्माहात्म्यं = मेरा ये माहात्मय
मम = मेरा
सन्निधिकारकम् = सामीप्य कराने वाला है
मेरा ये सब माहात्मय मेरा सामीप्य कराने वाला है ।
पशुपुष्पार्घ्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ॥ २०॥
पशु पुष्प अर्घ्य धूपैश्च= पशु , फूल , अर्ध्य और धुप
गन्ध दीपै: तथा उत्तमैः = इसी प्रकार उत्तम गंध , दीप से
पशु , फूल , अर्ध्य, धुप और इसी प्रकार उत्तम गंध , दीप से
विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम् ।
अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या ॥ २१॥
भोजनै: = भोजन
होमैः = होम
प्रोक्षणीयै: = अभिषेक
अहर्निशम्= प्रतिदिन
अन्यै:= अन्य
च = और
विविधै: भोगैः = अनेक प्रकार के भोग
प्रदानै: प्रदान करने से
वत्सरेण = एक साल तक
या = जो
साल भर प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन, होम ,अभिषेक और अनेक प्रकार के अन्य भोग प्रदान कर
प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन् सकृदुच्चरिते श्रुते ।
श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यं प्रयच्छति ॥ २२॥
प्रीति: मे = मुझे प्रसन्न
क्रियते = करते हैं
सा = वह , उतनी
अस्मिन् = इस
सकृतचरिते = उत्तम चरित्र को
श्रुते= सुनने से होती हूँ
श्रुतं =सुनने पर
हरति = हरती हूँ
पापानि = पाप
तथा= इसी प्रकार
आरोग्यं प्रयच्छति = आरोग्य प्रदान करती हूँ
मुझे प्रसन्न करते हैं , उतनी (प्रसन्न मैं) इस उत्तम चरित्र को सुनने से होती हूँ, इसे सुनने पर मैं पाप हारती हूँ , इसी प्रकार आरोग्य प्रदान करती हूँ ।
रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम ।
युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् ॥ २३॥
तस्मिञ्छ्रुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते ।
रक्षां = रक्षा
करोति = करता है
भूतेभ्यो = भूतों से
जन्मनां = उत्पत्ति का
कीर्तनं = कीर्तन
मम = मेरी
युद्धेषु = युद्ध का
चरितं = चरित्र है
यन्मे = जो मेरा
दुष्टदैत्यनिबर्हणम् = दुष्ट दैत्यों के संहार का
तस्मिञ्छ्रुते = उसके सुनने से
वैरिकृतं = शत्रुओं द्वारा उत्पन्न
भयं = भय
पुंसां = मनुष्यों को
न जायते = नहीं रहता
मेरी उत्पत्ति का कीर्तन भूतों से रक्षा करता है । दुष्ट दैत्यों के संहार का जो मेरा चरित्र है उसके सुनने से शत्रुओं द्वारा उत्पन्न भय मनुष्यों को नहीं रहता ।
युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः ॥ २४॥
ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्तु शुभां मतिम् ।
युष्माभिः = तुम ने
स्तुतयो = स्तुति
याश्च = और जो
याश्च = और जो
ब्रह्मर्षिभिः ब्रह्म ऋषियों ने
कृताः = की है
ब्रह्मणा च = और ब्रह्मा ने
कृता:= की है
ता: = वे
तु = वास्तव में
प्रयच्छन्तु = देती है
शुभां =शुभ
मतिम् = मति
और जो (देवताओं ) तुमने , और जो ब्रह्म ऋषियों ने स्तुति की है और जो ब्रह्मा ने की है वो वास्तव में शुभ मति देती हैं ।
अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः ॥ २५॥
दस्युभिर्वा वृतः शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः ।
सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः ॥ २६॥
अरण्ये = वनमे
प्रान्तरे = निर्जन रास्ते में
वा= अथवा
अपि = भी
दावाग्नि परिवारितः= जंगल की आग में घिर कर
दस्युभि:= लुटेरों से
वा = अथवा
वृतः = घिर कर
शून्ये = निर्जन में
गृहीतो = पकडे जाने पर
वापि = अथवा
शत्रुभिः= शत्रुओं द्वारा
सिंहव्याघ्रा = शेर और चीतों
अनुयातो = पीछा करने पर
वा =अथवा
वने =वन में
वा =अथवा
वनहस्तिभिः= जंगली हाथियों द्वारा
वनमे अथवा निर्जन रास्ते में अथवा जंगल की आग में घिर कर भी , निर्जन में लुटेरों से घर कर अथवा शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने पर अथवा वन में शेर और चीतों द्वारा या जंगली हाथियों द्वारा
पीछा करने पर
राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा ।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे ॥ २७॥
राज्ञा = राजा
क्रुद्धेन = क्रोधित
च= और
अज्ञप्तो = आज्ञा
वध्यो = वध की
बन्धगतो= बंदी होने पर
अपि = भी
वा = अथवा
आघूर्णितो= डगमगाती
वा = अथवा
वातेन = तूफ़ान से
स्थितः = स्थित
पोते = नाव पर
महार्णवे = महासागर में
क्रोधित राजा द्वारा वध की आज्ञा या बंदी होने से अथवा महासागर में तूफ़ान से डगमगाती नाव पर स्थित होने पर
पतत्सु चापि शस्त्रेषु सङ्ग्रामे भृशदारुणे ।
सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोऽपि वा ॥ २८॥
पतत्सु = प्रहार होने पर
च = और
अपि= भी
शस्त्रेषु = शास्त्रों के
सङ्ग्रामे= संग्राम में
भृशदारुणे = अत्यंत भयंकर
सर्वाबाधासु = बाधाओं में
घोरासु = भयानक
वेदनाभ्य आर्दितो = वेदना से पीड़ित होने पर
अपि = भी
वा = या
और अत्यंत भयंकर संग्राम में शास्त्रों के प्रहार होने पर भी, भयानक बाधाओं में या वेदना से पीड़ित होने पर भी
स्मरन् ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात् ।
स्मरन् = स्मरण करने पर
ममैतच्चरितं = मम एतत चरितं = मेरे इस माहात्मय को
नरो = मनुष्य
मुच्येत = मुक्त हो जाता है
सङ्कटात्= संकटों से
मेरे इस माहात्मय को स्मरण करने पर मनुष्य संकटों से मुक्त हो जाता है ।
मम प्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा ॥ २९॥
दूरादेव पलायन्ते स्मरतश्चरितं मम ॥ ३०॥
मम = मेरे
प्रभावात्= प्रभाव से
सिंहाद्या = सिंह आदि जानवर
दस्यवो = लुटेरे
वैरिण: = शत्रु
तथा = इसी प्रकार
दूरात् एव = दूर से ही
पलायन्ते = भागते हैं
स्मरत: = समरण करने पर
चरितं = चरित्र का
मम = मेरे
मेरे चरित्र का स्मरण करने पर मेरे प्रभाव से सिंह आदि जानवर, लुटेरे , इसी प्रकार शत्रु दूर से ही भागते हैं ।
ऋषिरुवाच ॥ ३१॥
ऋषि बोला ।
इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ ३२॥
पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत ।
इत्युक्त्वा = इति उक्तवा = यह कह कर
सा = वह
भगवती = भगवती
चण्डिका = चण्डिका
चण्डविक्रमा= प्रचंड पराक्रम वाली
पश्यतां = देखते
सर्वदेवानां = सब देवताओं के
तत्रैव= वहीँ
अन्तरधीयत = अंतर्ध्यान हो गयी
यह कह कर वह प्रचंड पराक्रम वाली बगवती चण्डिका सब देवताओं के देखते देखते वहीँ अंतर्ध्यान हो गयीं ।
तेऽपि देवा निरातङ्काः स्वाधिकारान्यथा पुरा ॥ ३३॥
यज्ञभागभुजः सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः ।
तेऽपि= वे भी
देवा = देवता
निरातङ्काः = आतंक रहित हो
स्वाधिकारान् = अपने अधिकार का पालन
यथा = जैसे
पुरा = पहले
यज्ञभागभुजः= यज्ञ भाग का उपभोग करते हुए
सर्वे = सब
चक्रु: = करने लगे
विनिहता = मारे जाने पर
आरयः= शत्रुओं के
वे सब देवता भी शत्रुओं के मारे जाने पर पहले की तरह डर रहित हो यज्ञ भाग का उपभोग करते हुए अपने अधिकार का पालन करने लगे ।
दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि ॥ ३४॥
जगद्विध्वंसके तस्मिन् महोग्रेऽतुलविक्रमे ।
निशुम्भे च महावीर्ये शेषाः पातालमाययुः ॥ ३५॥
दैत्या: = दैत्य
च = और
देव्या = देवी द्वारा
निहते = मारे जाने पर
शुम्भे = शुम्भ के
देवरिपौ = असुर
युधि= युद्ध में
जगत् विध्वंसनि = जगत को नष्ट करने वाले
तस्मिन् = उस
महोग्रे= महा भयंकर
अतुलविक्रमे = अत्यंत पराक्रमी
निशुम्भे च = और निशुम्भ के
महावीर्ये = महावीर्य
शेषाः = बचे हुए
पातालम= पाताल में
आययुः= चले गए
और जगत को नष्ट करने वाले उस महा भयंकर अत्यंत पराक्रमी असुर शुम्भ और महावीर निशुम्भ के युद्ध में देवी द्वारा मारे जाने पर शेष बचे दैत्य पाताल चले गए ।
एवं भगवती देवी सा नित्यापि पुनः पुनः ।
सम्भूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ॥ ३६॥
एवं = इस प्रकरर्
भगवती = भगवती
देवी = देवी
सा = वह
नित्यापि = नित्य होती हुई भी
पुनः पुनः = बार बार
सम्भूय = प्रकट हो कर
कुरुते = करती है
भूप = हे राजा
जगतः = जगत की
परिपालनम् = रक्षा
हे राजा , इस प्रकार वह भगवती देवी नित्य होती हुई भी बार बार प्रकट हो कर जगत की रक्षा करती है ।
तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते ।
सा याचिता च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिं प्रयच्छति ॥ ३७॥
तया = उनसे
एतत =इस
मोह्यते = मोहित किया जाता है
विश्वं = विश्व को
सैव स एव = वह ही
विश्वं = विश्व को
प्रसूयते = जनम देती हैं
सा = वह
याचिता = प्रार्थना करने पर
च = और
विज्ञानं = विज्ञान
तुष्टा = संतुष्ट हो
ऋद्धिं = समृद्धि
प्रयच्छति = प्रदान करती हैं
उनके द्वारा ही इस विश्व को मोहित किया जाता है , वे ही विश्व को जनम देती हैं । वह प्रार्थना करने पर संतुष्ट हो समृद्धि प्रदान करती हैं ।
व्याप्तं तयैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर ।
महादेव्या महाकाली महामारीस्वरूपया ॥ ३८॥
व्याप्तं = व्याप्त है
तया= उनके द्वारा ही
एतत = यह
सकलं = सारा
ब्रह्माण्डं = ब्रह्माण्ड
मनुजेश्वर = हे राजन
महाकाल्या = महाकाली
महाकाले = महाकाल में
महामारीस्वरूपया = महामारी का रूप धारण करने वाली
हे राजन महाकाल में महामारी का रूप धारण करने वाली उन महाकाली द्वारा ही यह सारा ब्रह्माण्ड व्याप्त है ।
सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा ।
स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी ॥ ३९॥
सैव = वह ही
काले = समयानुसार
महामारी =महामारी
सैव = वह ही
सृष्टि:= सृष्टि
भवति = बन जाती हैं
अजा = अजन्मा
स्थितिं = रक्षा , पालन पोषण
करोति = करती हों
भूतानां = प्राणियों की
सैव = वह ही
काले = समय समय पर
सनातनी = सनातनी(नित्य एवं प्राचीन ) देवी
वह ही समयानुसार महामारी हैं , वे ही अजन्मा हो कर भी सृष्टि बन जाती हैं , वे सनातनी देवी ही समयनुसार प्राणियों की रक्षा करती हैं ।
भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदा गृहे ।
सैवाभावे तथालक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ॥ ४०॥
भवकाले = शुभ समय में
नृणां = मनुष्यों के
सैव = वे ही
लक्ष्मी: = लक्ष्मी
वृद्धिप्रदा = समृद्धि देने वाली
गृहे = घर में
सैव = वे ही
अभावे = अभाव में
तथा = इसी प्रकार
अलक्ष्मी: = अलक्ष्मी हैं
विनाशाय = विनाश
उपजायते = करने वाली
वे ही शुभ समय में मनुष्यों घर में समृद्धि देने वाली लक्ष्मी हैं , इसी प्रकार वे ही अभाव में विनाश करने वाली अलक्ष्मी हैं ।
स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्गन्धधूपादिभिस्तथा ।
ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मे गतिं शुभाम् ॥ ४१॥
स्तुता = स्तुति करने से
सम्पूजिता = पूजा कर
पुष्पै:= फूल
गन्धधूपादिभि:= गंध , धुप आदि से
तथा = इस प्रकार
ददाति = देती हैं
वित्तं = धन
पुत्रांश्च = और पुत्र
मतिं = बुद्धि
धर्मे = धार्मिक
गतिं = गति
शुभाम् = शुभ
इसी प्रकार फूल गंध , धुप आदि से पूजा कर स्तुति करने से धन , पुत्र , धार्मिक बुद्धि और शुभ गति देती है ।
॥ स्वस्ति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
भगवती वाक्यं द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
Thanks for the अन्वय and अर्थ । it really made my day.
ReplyDeleteबहुत दिन से तलाश करते करते आज अन्वय सहित अर्थ प्राप्त हुआ बहुत अच्छा लगा
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